रास लीला के ब्रज में आरम्भ
आज से लगभग 600 वर्ष पुर्व श्रीधाम बरसाना के पास करहला गांव में श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय के 35 वें आचार्य श्रीनिम्बार्कपीठाधीश्वर महाराजेश्वर प्रवर परमहंसवंशाचार्य श्रीहरिव्यासदेवाचार्य जी महाराज जी के द्वादश शिष्यों में एक शिष्य श्री घमण्डदेवाचार्य जी महाराज साधना रत थे| उनकी साधना पर प्रसन्न होकर श्री लाड़ली लाल जू उनको अपनी निकुंज लीलाओं के प्रत्यक्ष दर्शन करवाते थे|
जैसा की हम सब जानते हैं सन्त जन तो सहज करुणा का सागर होते हैं पुज्य श्री घमण्डदेवाचार्य जी के मन में यह इच्छा हुई कि जिन लीलाओं का आनंद मैं प्राप्त कर रहा हुँ उसका आनंद आम जन मानस को भी प्राप्त हो| उन्होने यह इच्छा श्रीप्रियाप्रियतम के समक्ष प्रस्तुत करीं तो हमारे श्री लाड़ली लाल सहज कृपामय अपने भक्तों की इच्छा कैसे स्वीकार ना करें उन्होने इस इच्छा को सहज स्वीकार किया|
श्रीप्रिया जू ने अपनी चंद्रिका (जो मुकुट श्रीजी अपने शीश पर धारण करती हैं उसे चंद्रिका कहते हैं).और श्रीठाकुजी ने अपना मोर मुकुट उतारकर श्रीआचार्यश्री को प्रदान करते हुए कहा कि यह मुकुट और चंद्रिका तुम जिन ब्राहमण बालकों के शीश पर धारण करवाओगे वह हमारा ही स्वरुप होंगे| उनमें हमारे आवेश आऐंगे इससे वो हमारा ही आवेशावतार होंगे उनमें और हममें किंचन मात्र भी भेद नहीं होगा|
श्रीजीलालजी से मुकुट चंद्रिका लेकर आचार्यश्री ने गांव के कमलनयन और तुलसी नामक दो ब्राहमण बालकों को अपने पास बुलाया| कमलनयन को रखा ठाकुरजी की भुमिका में और तुलसी बालक को रखा श्रीजी की भुमिका में, कमलनयन को मोरमुकुट और तुलसी को जैसे ही चंद्रिका धारण करवाई उन दोनों में श्रीजी लालजी को आवेश आ गया| दोनों ऐसे नृत्य गायन प्रवचन आदि नाना प्रकार की लीला करने लग गए, गांव के लोग देखकर अचंभित हो गए और भाव से लीला दर्शन करने लगे| कुछ ही समय पश्चात लीला करके मुकुट और चंद्रिका बालकों सहित अंतरध्यान हो गए|
पुरे गांव में हल्ला हो गया हमारे बच्चे कहाँ हैं? कहाँ हैं? आचार्यश्री श्रीजी ठाकुरजी के पास जाकर उनसे इस विष्य में पुछते हैं तो ठाकुरजी कहते हैं कि,"वह दोनो बालक मुकुट चंद्रिका सहित हमारे नित्य विहार में प्रवेश कर चुके हैं अब वह लौटकर नहीं जाऐंगे| अब तुम सोने के मुकुट चंद्रिका बनवाओ उसे फिर हमारे पास लाओ उन मुकुट चंद्रिका से हम अपने मुकुट चंद्रिका का स्पर्श करवाऐगे फिर जो बालक उन मुकुटों को धारण करेगे वो अंतरध्यान नहीं होंगे और इन स्वर्ण मुकुट चंद्रिका से स्पर्श करवाकर जो मुकुट चंद्रिका पहनेंगे वो हमारा ही स्वरुप होंगे उनमें हममें कोई भेद नहीं होगा जो वो करेंगे वो हम ही कर रहें होंगे| हमारे साधक भक्तों के लिए यह हमारा रुप हमारी कृपा हैं जो हममें और रास स्वरुपों में भेद करता हैं एक मनोरंजन समझता हैं वह बहुत बड़ी कृपा से वंचित रह जाएगा| जाओ वत्स! हमारी आग्या का पालन करो और राजा से कहकर स्वर्ण मुकुटों का निर्माण करवाओ|"
आचार्यश्री ने ऐसा ही किया स्वर्ण मुकुटों का निर्माण हुआ और आज वर्तमान में भी वह मुकुट मथुरा बैंक में सम्भालकर रखें हुए हैं, प्रतिवर्ष याल में एक बार भादों पुर्णिमा वाले दिन उनको करहला गांव में लाया जाता हैं| श्रीरासबिहारी सरकार को धारण करवाकर रासलीला का आयोजन होता हैं| वहां एक बड़ा रासमंडल हैं यह नियम हैं कि जब भी कोई नई रासलीला मंडली बनती हैं तो सबसे पहले उस रासमंडल पर ही लीला करती हैं उसके बाद जहां निमंत्रण आए वहाँ जाती हैं परंतु सर्वप्रथम रासमंडल पर ही रासलीला होती हैं|
जो मोरमुकुट और चंद्रिका श्रीजीलालजी धारण करते हैं वो मुकुट फिर किसी अन्य सहचरी या स्वरुप को धारण नहीं करवाते हैं| जो बालक श्रीजी की भुमिका में होते हैं उन्हें श्रीजी और जो ठाकुरजी की भुमिका में होते हैं उन्हें बिना श्रृंगार भी ठाकुरजी श्रीजी कहकर ही संबोधित किया जाता हैं यह हमारे ब्रज की परम्परा हैं| जो बालक श्रीजी लालजी की भुमिका में होते हैं उन्हें फिर रासबिहारी बोला जाता हैं|
यह रासबिहारी सरकार साधारण नहीं हैं हमारे ब्रज के संत कहते हैं कि रासबिहारी तो चलते फिरते ठाकुर हैं| अपने भक्तों के भावों की पुर्ति के लिए श्रीलालप्रिया जू श्रीरासबिहारी सरकार के रुप में लीला कर रहें| यदि आपके आस पास या कही भी रासलीला का आयोजन हो तो अवश्य जाए क्योंकि श्रीरासबिहारी की कृपा किसी को सहज प्राप्त नहीं होती क्योकि यह प्रियाप्रियतम का वह स्वरुप हैं जो सबसे अधिक सुलभ होते हुए भी सबसे अधिक दुर्लभ हैं|
पूर्व कथा - श्री नारायण भट्ट को रास मंडलों का संस्थापक माना जाता है। नारायण भट्ट जी ने संवत 1604 में बरसाना के भ्रमेशवर गिरी में से राधारानी का प्राकटय किया था। भट्ट जी नए कुल 28 रास मंडलों की स्थापना की थी। उसी समय वृन्दावन में श्रीहित हरिवंश जी, स्वामी श्री हरिदास जी एवं श्री हरिराम व्यास ने भी पांच रास्मंदलों की स्थापना की। नारायण भट्ट ने बरसाना में बूढी लीलाओं के मंचन की भी शुरुआत की। यह लीलाएं आज भी संत समाज के सहयोग से चिकसोंली के फत्ते स्वामी के वंशज बालकों के द्वारा बाबा चतुर्भुज दास पुजारी के निर्देशन में की जाती हैं। इस समय यह उत्तर प्रदेश की अत्यंत समृद्ध लोक नाट्यकला है। नृत्य, संगीत, नाटक और कविता इसके प्रमुख अंग है। समस्त नौ रस इसमें निहित है।
रासलीला के प्रसंगों को दिन ब दिन विकसित करने में संतों, कवियों और भक्तों आदि का विशेष योगदान रहा है। जयदेव, सूरदास, चतुर्भुज दास, स्वामी हरिदास, कुम्हन दास, नंदास, हरिराम व्यास एवं परमानंद आदि ने रासलीला को मजबूत धरातल प्रदान किया।
इस समय ब्रज में दो प्रकार की रास मंडलियाँ प्रमुख हैं - बायें मुकुटवाली जो कि निम्बार्की मंडली कहलाती है एवं दायें मुकुटवाली, जो कि वल्लभकुली मंडली कहलाती हैं। रासलीला के दो मुख्य भाग है 'रास' और 'लीला'। रास वह हैं जिसमें मंगलाचरण, आरती, गायन, वादन व नृत्य आदि होता है, जिसे 'नृत्य रास' या नृत्य रास' कहा जाता है। लीला में भगवान् श्रीकृष्ण की सुमधुर रसमयी, चंचल व गंभीर निकुंज लीलाओं एवं पौराणिक कथाओं की लीलाओं व भक्त चरित्रों आदि का अभिनयात्मक प्रदर्शक गात्मक और पात्मक शैली में होता है।
श्रीरासबिहारी सरकार की महिमा में कुछ कहने की हमारी औकात नहीं हैं यह सब उन्हीं कृपा से लिखा जा रहा हैं अपनी दासी को अपनी सेवा में रखें ऐसी उनसे करुण प्रार्थना
श्रीरासबिहारी सरकार को समर्पित
बोलो रासबिहारी सरकार की जय 🙌
बोलो श्रीघमण्डदेवाचार्य जी महाराज की जय 🙌
जय श्री राधे
[ हर क्षण जपते रहिये ]
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