श्री निंबार्क शरण देवाचार्य श्री श्रीजी महाराज का जीवन चरित्र || Biography of Shri Nimbark Sharan Devachary Shri ShriJi Maharaj
( रसमंजरी सखी के अवतार )
श्रीसर्वेश्वर वन्दारुं देश रक्षा दृढ़-व्रतम्।
श्रीमन्निम्बार्कशरणदेवाचार्यं नतोऽस्म्यहम्।।
श्रीसर्वेश्वर वन्दारुं देश रक्षा दृढ़-व्रतम्।
श्रीमन्निम्बार्कशरणदेवाचार्यं नतोऽस्म्यहम्।।
आपका नाम श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय की आचार्य परम्परा में ४३ वीं संख्या में आता है। वि० सं० १८७० से लेकर वि० सं० १८९७ तक आपश्री आचार्यपीठासीन रहे थे।
जयपुर महाराजा श्रीजगतसिंहजी के कोई संतान नहीं थी। वि० सं० १८७५ में उनका स्वर्गवास हो गया। उनकी एक रानी गर्भवती थी, किन्तु जयपुर राज्य के पर्रिकर के कुछ सामन्तों ने मोहनसिंह नामक एक व्यक्ति के राज्याभिषेक का निश्चय कर लिया। कुछ सामन्तों ने उसको यह कहकर रोका कि रानीजी के प्रसव की प्रतीक्षा की जाय। इस पर दोनों पक्ष सहमत हो गये।
महारानी भटियानी श्रीआनन्दकुमारीजी ने श्रीनिम्बार्काचार्य श्री श्रीजी महाराज से प्रार्थना की और उनकी आज्ञानुसार पुत्र प्राप्त्यर्थ श्रीसर्वेश्वर प्रभु की विशेष आराधना आरम्भ कर दी।
श्रीस्वामी श्रीपरशुरामदेवाचार्यजी महाराज के हवन कुण्ड(धूनी) पर हवन करवाया गया। प्रभु कृपा से रानी साहिबा के राजकुमार का जन्म हुआ। उनका नाम जयसिंह (तृतीय) रखा। जयपुर राज्य की समस्त प्रजा में हर्षोल्लास छह गया।
एक वर्ष बाद जयपुर राज्य के पूज्य गुरुदेव श्री श्रीजी श्रीसर्वेश्वरशरणदेवाचार्य जी महाराज का विशिष्ट-स्मृति महोत्सव (मेला) किया गया। उसमें राज्य की ओर से एक लाख रुपये खर्च हुए। आचार्यपीठ की ओर से भी इतना ही व्यय हुआ। वह मेला (भण्डारा) एक ऐतिहासिक था। घृत के लिये कुण्ड बनवाया गया था। चारों धामों के साधु-सन्तों को आमन्त्रित किया गया था। जयपुर के सुप्रतिष्ठित मण्डन कवि ने इस भण्डारे का विशद वर्णन किया है। उस पुस्तक का नाम है जय साह सुजस प्रकाश।
विक्रम सम्वत् १८७८ में वृन्दावनधाम में एक विशाल मन्दिर की नींव लगी। इक्यावन हजार घनफुट जमीन पर पाँच वर्ष के सतत परिश्रम से जयपुर के शिल्पियों ने अनुपम मन्दिर का निर्माण किया। उस समय इस मंदिर की उपमा पाने वाला वृन्दावन में कोई दूसरा मन्दिर नहीं था। रङ्ग मन्दिर, लाल बाबू, टिकारी मन्दिर, शाह विहारी आदि विशाल मंदिर इसके पश्चात ही बने हैं। केवल मदनमोहन, गोविन्द, गोपीनाथ, राधावल्लभ आदि ५-७ ही विशाल प्राचीन मन्दिर थे। किन्तु उनकी आकृति शैली भिन्न थी।
जयपुर की राजमाता भटियानी रानी आनन्दकुमारीजी ने अपने गुरुदेव श्री श्रीजी श्रीनिम्बार्कशरण देवाचार्यजी महाराज के आदेशानुसार यह मन्दिर बनवाकर अपने नाम को भी प्रभु से संलग्न रखने के लिए विक्रम सम्वत् १८३३ ज्येष्ठ शुक्ल ९ को ठाकुर श्रीआनन्दमनोहरवृन्दावनचन्द्रजी महाराज की प्रतिष्ठा समारोह पूर्वक करवाई, पूजा सेवा के लिए तीन ग्राम भेंट किये और श्री श्रीजी महाराज के अर्पित कर दिया। जो कि श्री श्रीजी महाराज की बड़ी कुञ्ज के नाम से प्रसिद्ध है।
महारानी और स्व० नरेश की कृपापात्र रूपाँ बडारन ने भी इसी के साथ एक छोटा मन्दिर बनवा कर इसी दिवस श्रीरूपमनोहरवृन्दावनचन्द्रजी की प्रतिष्ठा करवाई। मध्य द्वारों पर संगमरमर के सुंदर हाथी श्रीवृन्दावन के इन्हीं दोनों मंदिरों में मिलते हैं।
आचार्यश्री द्वारा विरचित कुछ फुटकर पैड उत्सव संग्रहों में उपलब्ध होते हैं। आपकी प्रौढ़ता विद्वता एवं अपने आराध्य देव श्रीसनकादि संसेव्य भगवान् श्रीसर्वेश्वर प्रभु के श्रीचरणों में अगाध निष्ठा कैसी थी, यह तो आपके द्वारा निर्मित श्रीसर्वेश्वर प्रपत्ति-स्तोत्र से सहज ही विदित हो जाता है।
भक्ति क्षेत्र सम्बन्धी अनेक चरित्र के अतिरिक्त स्वदेश की सुरक्षा एवं स्वतन्त्रता पर भी आपश्री की पूर्ण भावना थी। जब ब्रिटिश शासन काल मे अंग्रेजों द्वारा भरतपुर पर आक्रमण हुआ था, उस समय आपने अपने प्रिय शिष्य महाराजा श्री भरतपुर की सहायता एवं भरतपुर किला में चतुरचिन्तामणिदेवाचार्य (श्रीनागाजी महाराज) के आराध्यदेव भगवान श्रीविहारीजी के मंदिर सुरक्षार्थ ३०० साधुओं की सेना श्रीनिम्बार्काचार्यपीठ से भरतपुर के धर्मयुद्धार्थ भेजकर भारतीय संस्कृति परम्परा का संपोषण किया।
इस प्रकार आपके इस जीवन-चरित्र से सभी को भगवद्भक्ति एवं देश-प्रेम की शुभ प्रेरणा संप्राप्त होती है। इन आचार्यश्री का उपनाम श्रीनन्दकुमारशरणदेवाचार्य भी था। आपश्री द्वारा जब भरतपुर नरेश को सहायता दी गई तब ब्रिटिश सत्ता ने अजमेर मण्डलस्थ कतिपय ग्राम जो आचार्यपीठ के अधिकार में थे उनको अपने अधीन कर लिये। ऐसी स्तिथि में जोधपुर क्षेत्रीय क्षत्रिय सामन्तों ने जोधपुर नरेश के निर्देश पर आचार्यपीठ पर वार्षिक भेट समर्पित करने की व्यवस्था की। इस प्रकार इन आचार्यश्री का जीवन चरित परम उज्ज्वल और गौरवपूर्ण रहा है। आपकी चरण पादुका श्रीनिम्बार्काचार्यपीठ में विद्यमान है। आपका पाटोत्सव ज्येष्ठ शुक्ल ५ (पञ्चमी) का है।
!! जय राधामाधव !![ हर क्षण जपते रहिये ]
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