श्री सर्वेश्वर शरण देवाचार्य श्री श्रीजी महाराज का जीवन चरित्र || Biography Shri Sareveshwar Sharan Devacahray Shri ShriJi Maharaj
( रूपमंजरी सखी के अवतार )
आप अखिल भारतीय श्री निम्बार्काचार्यपीठ की आचार्य परम्परा में श्रीहंस भगवान् से ४२ वीं संख्या में विद्यमान थे । आपका जन्म जयपुर मण्डलान्तर्गत सराय नामक ग्राम के सुप्रसिद्ध गौड़ ब्राह्मण पंडित श्रीभवानीरामजी जोशी के घर हुआ था । आपके माता - पिता भगवान श्रीसर्वेश्वर प्रभु के अनन्य भक्त थे । माता-पिता ने श्रीसर्वेश्वर प्रभु की कृपा प्रसाद से ही आप जैसे पुत्र - रत्न को पाया था । श्रीसर्वेश्वर प्रभु श्रीशालग्राम स्वरूप है, अतः उनकी आराधना से संप्राप्त होने के कारण पिता ने इस बालक का नाम भी शालग्राम ही रख दिया । इसके पीछे प्रभु कृपा से दूसरा भाई और हो जाने पर माता-पिता ने इनको भगवान श्रीसर्वेश्वर प्रभु की सेवा में ही समर्पण कर दिया । आचार्यश्री ( जगद्गुरुश्री निम्बार्काचार्य श्रीगोविन्दशरणदेवाचार्यजी महाराज ) के चरणाृश्रित होकर दीक्षा के समय श्रीसर्वेश्वरशरण यह नाम निर्धारित किए जाने के पश्चात आपका अध्ययन प्रारम्भ हुआ । "होनकार विरवान् के होत चिकने पात" वाली कहावत आपके प्रिय पूर्ण रुपेण चरितार्थ हो जाती है । थोड़े समय के बाद ही आप हिंदी, संस्कृत भाषाओं के ज्ञाता होकर पूर्ण ( प्रकाण्ड़ )! विद्वान हो गए । विक्रम सम्वत् १८४१ में आप श्रीनिम्बार्काचार्य पीठासीन हुए ।
वैसे तो जयपुर बसने के पूर्व आमेर नरेश सवाई जयसिंहजी ( द्वितीय ) ने राज्य गद्दी पर आसीन होते ही अपने गुरुदेव अनन्त श्रीविभूषित श्रीवृन्दावनदेवाचार्यजी महाराज को आचार्यपीठ श्रीनिम्बार्काचार्य पीठ निम्बार्क तीर्थ ( श्री निंबार्क तीर्थ ) से आमेर पधराया । आपश्री की सम्मति से और अन्य भी अनेक विद्वानों व महात्माओं को आमंत्रित किया तथा आपश्री की आज्ञानुसार महाराज श्रीजयसिंहजी ने विक्रम सम्वत् १७८४ में जयपुर की स्थापना की । इस प्रकार आचार्यचरणों का आमेर व जयपुर नरेशों से सम्पर्क निरन्तर बना रहा । इसी परम्परा में श्रीवृन्दावनदेवाचार्यजी महाराज से चतुर्थ पीठीका में श्रीसर्वेश्वरशरणदेवाचार्यजी महाराज एवं सवाई जयसिंहजी
( द्वितीय ) की चतुर्थ पीठिका में महाराज श्रीप्रतापसिंहजी वर्तमान थे ।
इस समय में महाराज श्रीप्रतापसिंहजी ने श्रीसर्वेश्वरशरणदेवाचार्यजी महाराज की अनुमति से जयपुर में वैष्णवों के चारों सम्प्रदायों की स्थायी रूप से निवास व्यवस्था की ।
जयपुर राज सम्मानित विद्वद्वर कवि मण्डन भट्ट ने विक्रम सम्वत १८७८ में - -
"जय साह सुजस प्रकाश"
नामक ग्रंथ की रचना की जिसमें उन्होंने लिखा है कि - -
माधव महीन्द्र सुत श्रीप्रताप,
बुलवाय कियेे गुरु करि मिलाप ।
निज महल बिच मन्दिर बनाय,
ता में पत्र पधराये शिर नवाय ।।
राधा - - नंदनंदन भक्ति भाव,
सीखे प्रताप नृप रचि सुभाव ।कर दिए रघु कुल के गुरु गनेश,
साँचे सेवक है प्रतापेश ।।
तिन गुरु चरनन को योग पाय,
दिए सम्प्रदाय चारों बनाय ।।
ब्रज निधि श्रीप्रतापसिंहजी के पुत्र श्रीजयसिंह जी ( तृतीय ) के जन्मोपलक्ष्य में श्रीजी श्रीसर्वेश्वरशरणदेवाचार्यजी महाराज का जयपुर राज्य की ओर से महान् स्मृति महोत्सव सम्पन्न हुआ था, जिसमें राज्य कोष से लाखों रुपयों का व्यय किया गया था । यह थी उन धार्मिक राजाओं की श्री गुरुचरणों में अपूर्व निष्ठा।
आपश्री द्वारा निर्मित अनेक स्रोत है, जिसमें कुछ मुद्रित भी हो चुके हैं । जयपुर के संस्थान श्री श्रीजी की मोरी में मंदिर के ठाकुरजी का नाम श्रीगोपीजनवल्लभजी होने के कारण उनके नाम पर निर्मित श्रीगोपीजनवल्लभाष्टक आप ही की सुमधुर कृति है । आपश्री ने श्रीमद्भागवत के अद्वितिय विद्वान् थे । आपश्री ने श्रीमद् भागवत पर सर्वेश्वरी नामक विस्तृत संस्कृत - व्याख्या की बड़ी ही प्रौढ़ और अतिमधुर भावपूर्ण रचना की है । कविवरेण्य श्रीमण्डन भट्ट जी ने अपने "जयशाह सुजस प्रकाश" ग्रंथ में उक्त व्याख्या ( टीका ) की चर्चा की है, तथा इसके अतिरिक्त डीडवाना ( नागौर ) निवासी श्रीशुकदेवजी व्यास के द्वारा भी उपयुक्त व्याख्या के सम्बन्ध में यह जानकारी मिली है कि यह सर्वेश्वरी व्याख्या मुंबई में हमारे ही परिकर के महानुभाव के पास हस्तलिखित प्रति विद्यमान है । उस प्रति को केनापि प्रकारेण मुंबई से प्राप्त की जाए तो यह दिव्य निधि से सम्प्रदाय एवं आचार्यपीठ का महत्वपूर्ण कार्य सम्पादित हो सकता है ।
प्रातः देखा जाता है कि विद्वता, प्रभुता और भक्ति रुप त्रिवेणी का संगम एक स्थान पर होना सुदुर्लभ है, किन्तु यहाँ तो उपयुक्त तीनों धारायें समान रूप से निर्वाध प्रवाहित थी । जयपुर के सुप्रसिद्ध महाकवि श्रीरसिकगोविन्दजी आप ही के कृपापात्र थे । कवि लोग निर्भिक हुआ करतेे है । वे आलोचना करने में नहीं डरते । पर आपकी विद्वता पूर्ण सुमधुर शैली से तो वह भी प्रभावित होकर बोल उठे कि मैंने कथा तो और भी कई एक वक्ताओं के मुख से सुनी है, किन्तु मुझे वास्तविकता इन्हीं की कथा में मिली है।
वे अपनी कविता में लिखते हैं - -
जनक को ज्ञान, शुकदेव को विराग पूजा पृथु की,
सुभक्ति चैतन्य भक्त - राज की ।
गोपिन को प्रेम, श्रीगोविन्दजू को माधुराज,
दासता हनू की, राजनीति रघुराज की ।।
सत्य दशरथ कौ, युधिष्ठिर को धर्म - - धैर्य,
काव्य - बाल्मीकि, जयदेव कवि - राज की ।
नारद की सीख, सनकादिक की साधुताई
कथा श्रीसर्वेश्वरशरण महाराज की ।।
देवनि के देव गुरुदेव सर्वेश्वरशरण,
भू पर प्रकट अवतार जौन धरतौ ।
श्रीभागोत पुरान पुरुषोत्तम की,
ऐसी भांति कहो कोविद उचरतो ।।
कौन साधु सेतौ जस लेतौ दान देतौ कौन,
गोविन्द गरीब को कलंक कैसे हरतौ ।
छाय जाति मढता पलाय जाती प्रेम भक्ति,
पालकी अनेक तिन्हें पावन कौन करतौ ।।
( महाकवि रसिक गोविन्द )
आप अपनी प्रखर विद्वता के अतिरिक्त सिद्धि बल संपन्न भी थे । आपके समय की अनेक चमत्कारपूर्ण घटनाओं में श्रीसर्वेश्वर प्रभु से सम्बन्धित एक चमत्कारपूर्ण घटना इस प्रकार है - -
एक बार भ्रमण करते हुए एक सिद्ध सन्त श्रीनिम्बार्काचार्यपीठ में भगवान् श्रीसर्वेश्वर राधामाधव एवं आचार्यश्री के दर्शनार्थ आ गए । वे सिद्धी सम्पन्न एवं स्वयंपाकी थे । जब उन्होंने भोजन बनाने हेतु सूखा सामान मांगा तो उनकी रुचि अनुसार सभी सामान दे दिया गया । जब उन्हें दूध दिया जाने लगा तो उनका एक छोटा सा लोटा जिसमें केवल एक पाव भर दूध पी समा सकता था, किंतु दस सेर दूध डालने पर भी पुरा न भरा । इस विचित्र दृश्य को देखकर स्थानीय अधिकारी व सन्तों ने बड़े विस्मित होकर उक्त घटना की चर्चा करते हुए आचार्यश्री से विनम्रता पूर्वक निवेदन किया । भगवन् !अब उन सन्त का समाधान किस प्रकार किया जाए ।
तब श्रीआचार्यचरणों में प्रमुदित मन हो श्रीसर्वेश्वर प्रभु के अभिषेक की प्रसादी दूध से परिपूर्ण एक चांदी का लोटा प्रदान करते हुए कहा कि जाओ आप उन सन्त का लोटा अब दूध से भर जायेगा । अपने लोटे की धार भी न टूटेगी । स्थानीय सन्तजन बड़ी उत्सुकता के साथ अतिथि सन्त को दूध देने के लिए पहुंचे । आचार्यश्री के निर्देशानुसार हुआ भी ऐसा ही । अभ्यागत सन्त का लोटा पूर्णत: भर गया और आचार्यश्री द्वारा प्रदत्त लोटे से दूध की धार ज्यों की त्यों अविचिछन्न रुप से गिरती रही जिससे मंदिर का पूरा प्रांगण दूध सञ्चित हो गया । अभ्यागत सन्त इस दृश्य को देखकर विनयानवत होकर श्रीचरण पद धूलि में लुण्ठित होने लगे और बार-बार क्षमा याचना करने लगे । परम् दयालु आचार्यपाद ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा कि आप कोई विचार ना करें यह तो पारस्परिक विनोदात्मक विषय है । यह सब उन्हीं श्रीसर्वेश्वर प्रभु की लीला का अनिर्वचनीय प्रभाव है ।
आपके तप तेज से प्रभावित होकर राजस्थान के अनेक राजा - महाराजा आपके चरणाश्रित हो गए थे । आपने वैष्णव धर्म की महान जागृति द्वारा संसारासक्त जन समुदाय का महान् कल्याण किया है । आपका पाटोत्सव पौष कृष्णा ६ ( षष्टी ) का है । आपकी चरणपादुकायें राजस्थान में जयपुर से आगे अलवर राज्य के क्षेत्र में आगर - नागल के मध्य प्रतापगढ़ से उस ओर १२ किलोमीटर की दूरी पर भव्य सुन्दर दर्शनीय छतरी पर अवस्थित है । रूपनगढ़ के भाट भी प्रमाणिक बही से अवगत हुआ है कि इसी स्थान पर आपने अपनी इहलीला संवरण की जिसका समय ज्येष्ठ कृष्ण ८ रविवार विक्रम सम्वत् १८७० प्रातः ८ बजे । उपयुक्त छतरी का निर्माण तत्कालीन जयपुर नरेश सवाई जससिंहजी ( तृतीय ) ने एवं राजमाता श्रीआनन्दकुमारी भटियानी ने निर्माण कराई, जिसका उल्लेख "जयसाह सुजस प्रकाश" ग्रन्थ में वर्णित है जो परम द्रष्टव्य है ।।
!! जय राधामाधव !!
[ हर क्षण जपते रहिये ]
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