श्री वृंदावन देवाचार्य जी का जीवन चरित्र
( मन मंजरी सखी के अवतार )
गीतामृतमायी गंगा, येन लोके प्रवाहिता ।
तं श्रीवृन्दावनं देवाचार्यं वंदे जगद्गुरूम ।।
वि. सं. १७५४ ई. में आचार्यप्रवर श्रीवृन्दावनदेवचार्य जी महाराज अपने गुरुवर्य आचार्यवार्य श्रीनारायनदेवचार्य जी के गोलोकधाम वास पश्चात आचार्यपीठ सिंहासनसीन हुए और श्रुति-वेद-पुराण प्रतिपादित भक्तिपूर्ण अपने सदुपदेशों द्वारा अनुपम लोकहित किया । आपकी सहिष्णुता, सरलता, विद्वता, तपश्चर्या और त्याग आदि से जयपुर, जोधपुर, किशनगढ़, बीकानेर, भरतपुर आदि राज्यों की तारीखों में विक्रम संवत १७५३ से १८०० तक आपके पुनीत नाम का उल्लेख मिलता है । कृष्णगढाधीश महाराजा श्रीसांवत सिंह जी (श्रीनागरीदास जी ) सपरिकर आपके ही शिष्य थे। आपकी परम कृपा से उन्हें मानसिक उपासना और और दृढ़ निष्ठा प्राप्त हुई थी ।
वि. सं. १७५६ में आमेर नरेंद्र महाराजा सवाई श्रीजयसिंह जी ( द्वितीय) के विनय पर आप आमेर पधारे । नरेन्द्र ने बाहुमान सम्मानपूर्वक आदर सत्कार करके अपने गुरुदेव को राजमहलों में पधराया । इन श्रीगुरुदेव की आज्ञानुसार महाराज श्रीजयसिंह ने वि. सं. १७६९ व १७७५ के बीच मे दो महान यज्ञ किये । वह यज्ञ स्थल आमेर से बाहर श्रीपरशुरामद्वारा के निकट है जो आज भी विद्यमान है । उन यज्ञों में अग्र पूज्य श्रीवृन्दावनदेवचार्य जी महाराज ही रहे । उन्ही के आदेशानुसार वि. सं. १७८४ माघ कृष्ण पंचमी बुधवार पूर्वाह्न के समय मे भारत के एक दर्शनीय महानगर जयपुर को बसाने की नींव लगी । उस शहर में निवास करने के लिए वैष्णव सम्प्रदायों के आचार्य और महत्तम महानुभाव भी आमंत्रित किये गए । उनके लिये मठ - मन्दिरादि का भी निर्माण हुआ ।
आपके समय के विद्वान कवियों ने आपके कलिमलापह कलेवर में अलौकिक ऐश्वर्या का वर्णन किया । आचार्य श्रीवृन्दावनदेवचार्य जी में श्रीवृन्दावनबिहारी का साक्षात्कार होने पर उनका बागदेवी ने भी यही प्रकाशित किया --
श्रीवृन्दावनदेवाय गुरुवे परमात्मे ।
मनो मंजरी रूपाय युग्म संगानुचरिणे ।।
भजेअहं बनाधीशदेवं महान्तं महासौम्यरुपं सुशांतम ।
सदा - प्रेममत्तं महाप्रेमगम्यं मुखे राधिका-कृष्ण लीलासुरमयं
श्रीनिम्बार्काचार्यपीठ के अत्यंत सन्निकट होंने के कारण रूपनगर - किशनगढ़ के राजा महाराजाओं का आचार्यपीठ और आचार्यप्रवर श्रीवृन्दावनदेवचार्य जी के श्री चरणों में ओर भी अनुराग बढ़ा। आचार्यचरणों के संपर्क से इस राजकुल के तत्कालीन राजा, राज महिला एवं राजपरिकर और प्रजाजनों में में भगवतभक्ति का अनुपम विकास हुआ । महाराजा श्रीराजसिंह जी, राजमहिषी श्रीबाँकावती जी, कुंवर श्रीसावंतसिंह जी ( श्रीनागरीदासजी ), राजकुमारी श्री सुन्दरकुंवरिजी और इनके दास दासिया भी इनके विशिष्ट भक्त कवि बने । इन सभी भक्त कवियों द्वारा अनेक भक्तिपूर्ण ग्रंथों का रचनाएँ हुई । जिससे भक्ति का खूब प्रचार-प्रसार हुआ ।
|| आपके समय की एक चमत्कारीपूर्ण घटना ||
किशनगढ़ नरेश श्रीसवंतसिंह जी ( श्रीनागरीदास ) की बहन श्रीसुन्दरकुंवरी जी ने आचार्य श्री की एक चमत्कार पूर्ण घटना को अपने "मित्र शिक्षा" नामक ग्रंथ में इस प्रकार वर्णन किया है । -
एक बार आप अनेक वैष्णवो को साथ लेकर तीर्थ यात्रा करने जा रहे थे । अनेक तीर्थ स्थलों का दर्शन करते हुए आप पंजाब पहुंचे । एक दिन मार्ग में चलते चलते संध्या हो गयी । वहां एक ग्राम के निकट एक उघान था , उसके चारों ओर एक परिकोटा तथा उसके चारो कोनो पर बुर्ज बनी हुई थी । वहां की जल जंगल की सुविधा देखकर वही रात्रि निवास करने का निश्चय किया । श्री सर्वेश्वर भगवान की सेवा हुई, भोजन प्रसादी पाकर रात्रि विश्राम हुआ। जब अर्द्धरात्रि का समय हुआ तो एक बुर्ज में से दुःख भरे स्वर में कराहने की आवाज आई। साथ वाले वैष्णवो ने उठकर इधर-उधर वहां जाकर भी देखा, पर कोई व्यक्ति नजर नही आया । बहुत खोज करने पर उन्होंने उस बुर्ज में जहाँ से आवाज आ रही थी वहां एक कील ठुकी हुई देखी । उन्होनें उस कील को उखाड़ दी । तत्काल ही वह शब्द होना बंद हो गया । वैष्णव पुनः अपने अपने स्थान पर आकर सो गए। थोड़ी देर पश्चात ही कभी भैसा , कभी सफेद वस्त्रधारी पुरुष के रूप में प्रकट और कभी अंतर्निहित हो जाता है , ऐसी भयंकर घटना को देख भयभीत होकर उन वैष्णवो ने महाराजश्री से निवेदन किया, तब महाराजश्री ने सम्यक प्रकार अवलोकन करके कहा कि डरो मत , ऐसा कहते हुए थोड़ा हाथ मे जल लेकर अभिमंत्रित कर उस ओर फेंका जिधर से वह अंतर्निहित हुआ था । फिर वह दिखना बंद हो गया। साथ वाले वैष्णव अपने अपने आसान पर जाकर सो गए। तब वह मनुष्य का रूप धारण करके महाराजश्री के निकर आया और दंडवत प्रणाम करके बोला कि हे महाराज ! "मैं प्रेत हु और यहां बहुत उत्पात किया करता था अतः किसी मन्त्र वेत्ता ने मुझे इस बुर्ज में बांध दिया था , इस कारण मेरे सिर में भारी वेदना होती थी इसी से मैं चिल्लाया करता था । आज आपने पधारकर मुझे इस दुख से निर्वत्त कर दिया । अब आप अपनी ही शरण मे मुझे भी रखिये । मैं आप और आपके साथ वाले वैष्णवो की सेवा किया करूँगा ।" उसकी विनय सुनकर इन्हें दया आई और उसके इस निश्चयात्मक विचार पर अति प्रसन्न हुए । तब उसे आश्वाशन देते हुए श्रीचरणों ने कहा कि अच्छा तुम्हे रखेंगे । प्रातः काल महाराजश्री ने सभी वैष्णवो को यह वृतांत सुनाया और कहा वह हमारे साथ रहेगा और आप लोगो की सेवा करेगा । आप लोग डरना नही । मार्ग में सामान लेकर चलते हुए सामान तो दिखेगा पर वह नही । इस पर सभी ने हर्ष प्रकट किया और इस कौतूहल को देखने के लिए अत्यंत हर्षित हुए। वह प्रेत इस प्रकार सेवा करते हुए समस्त यात्रा में संग में रहा । आचार्यपीठ आने के पश्चात महाराजश्री ने उसके मोक्ष आदि के लिए कुछ अनुष्ठानादि का आयोजन किया, जिससे उसकी मुक्ति हुई ओर वह प्रार्थना करते हुए दिव्य-लोक को चला गया । आकाश मार्ग में उसकी तेज रूपी ज्योति को सबने स्पष्ट रूप से देखा । दुखी जीवो पर दया करना ही महापुरुषों का लक्ष्य है ।
श्रीविरजानंद और श्रीआनंदघनजी भी आप ही के शिष्य थे । श्रीवृन्दावनदेवचार्य जी महाराज की चरणपादुका आज भी निम्बार्काचार्यपीठ में विद्यमान है । जहां मनुष्य मलेरिया आदि ज्वर रोगों से पीड़ित होने के बाद जब दवाइयों से ज्वर नही जाता है । तब इनकी चरणपादुका का आश्रय लेते है और रोग मुक्त हो जाते है ।
प्राचीन इतिहास के अनुसार हरिद्वार आदि कुंभ के अवसर पर किसी कारण विशेष को लेकर शैवशाक्त और वैष्णवो में एक बहुत भारी संघर्ष चल रहा था। वह संघर्ष शनै: शनै: बहुत बढ़ गया और प्रचंड रूप धारण करता हुआ एक दूसरे के ऊपर प्राण-घातक बनता हुआ सर्वत्र फैल गया।
ऐसे समय में राजस्थान में वैष्णवोचार्यो का बहुत अच्छा समूह था। और जयपुर नगर की स्थापना होने के कारण प्रायः अनेक संप्रदायों के विशिष्ट आचार्य संत-महात्मा भी वहां विराज रहे थे । जिनके पास यह समस्या आर्तनाद के साथ पहुँची, सभी ने सभा करने का निश्चय किया । जयपुर नगर की त्वारिखो और वहां के पुरातत्व संग्रहालय कर लेखों से पता चलता है कि सर्वप्रथम श्रीनिम्बार्काचार्य पीठाधीश्वर श्रीवृन्दावनदेवाचार्य जी महाराज के सभापतित्व में जयपुर से उत्तर की ओर लगभग ३० कोस की दूरी पर एक प्रशस्त परिसर में वैष्णवो की महती सभा हुई । कहा जाता है कि वि. सं. १७७१ जहां पर इस सभा का श्रीगणेश हुआ था, उस स्थान का नाम आगे चलकर गणेश्वर नाम प्रसिद्ध हुआ, वहां पर २-३ कोस की दूरी पर जो द्वितीय बैठक हुई , उसका नाम निम्बार्क स्थान ( नीम का थाना ) प्रसिद्ध हुआ । उस सभा मे सबको एक साथ मिलकर ( अर्थात सुसंगठित ) होकर रहने के लिए कुछ ऐसे साधनों और आचरणों का समन्वय किया गया जो कि वे किसी सम्प्रदाय में नियम माने जाते थे, और किसी मे उनकी उपेक्षा थी, कोई कोई मनमुखी आचरण चल पड़े थे। वे ५२ प्रतिज्ञायें थी, जिन्हें सभी सम्प्रदाय वालो ने स्वीकार किये था । उनमें दोहरी कंठी बांधना, गोपीचन्दन का तिलक करना, एकादशी में ४५ घटी का कपालवेध मानना, दंडवत प्रणाम विधि आदि १३ बातें निम्बार्क सम्प्रदाय की थी । अवशिष्ट ३९ बातें श्रीविष्णु स्वामी, श्रीरामानंदीय, श्रीमाधवगोडेश्वर, श्री राधवल्लभीय सम्प्रदायों की ओर से उपस्थित की गई थी ।
सभा मे वैष्णवो की ३ अनि और अनेक ५२ द्वारा निर्धारित किये गए । इन आनियो का नेतृत्व परम वैष्णव वीर प्रतापी और उत्साह सम्पन्न स्वामी श्री बालानंदादेवचार्यजी को दिया गया था । फिर इन ३ आनियो के ८ अखाड़े बन गये । आगे चलकर उनके कितने ही अवांतर प्रभेद होकर वैष्णव समाज सुसंगठित बन गया । एवंविध आपके अनेक पावनतम चरित्र के मङ्गलमय प्रसंग है, यहाँ विस्तार भय से स्वल्प रूप में ही कतिपय प्रंसग ही निर्दिष्ट किये गए है । आप श्री का समाधि स्थल एवं चरण पादुकाएं आचार्यपीठ में ही विद्यमान है । जिसकी चर्चा चरित प्रंसग मे की जा चुकी है । आपका पाटोत्सव भाद्रपद कृष्ण ( त्रयोदशी) १३ का है ।
!! जय राधामाधव !!
[ हर क्षण जपते रहिये ]
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