google.com, pub-8916578151656686, DIRECT, f08c47fec0942fa0 ४०) श्री गोविंद देवाचार्य जी का जीवन चरित्र || Biography of Shri Govind Devachary Ji

४०) श्री गोविंद देवाचार्य जी का जीवन चरित्र || Biography of Shri Govind Devachary Ji

श्री गोविंद देवाचार्य जी का जीवन चरित्र 

श्री गोविंद देवाचार्य जी का जीवन चरित्र || Biography of Shri Govind Dev achary Ji

 ( गौरांगी सखी के अवतार )

         सर्वेश्वरार्चने   लीनं   भक्तिमार्गोपदेशकम् ।
         श्रीगोविन्ददेवाचार्य प्रणतोस्मि जगद्गुरुम् ।।


         अनन्त श्रीविभूषित जगद्गुरु निम्बार्काचार्य श्रीगोविन्ददेवाचार्यजी महाराज का स्थिति काल विक्रम  की
  १८ वी शताब्दी माना जाता है । विक्रम सम्वत १७६७ से १८१४ तक आपने आचार्य सिंहासन को अलंकृत किया । आपके समय में आचार्यपीठ की यथेष्ठ उन्नति हुई । 
       जगद्गुरु श्रीनिम्बार्काचार्य श्रीवृन्दावनदेवाचार्यजी महाराज के धामवास हो जाने पर जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, कोटा, करोली आदि के नरेशों ने एकमत होकर श्रीनिम्बार्काचार्यपीठ पर महाराष्ट्र देशीय शेषजयरामजी को अभिषिक्त करना चाहा । यह संघर्ष बहुत जोर - शोर से चला, किंतु भक्त समुदाय और सम्प्रदाय के विरक्त सन्त, महान्तों ने राजाओं का विरोध किया । अंत में राजाओं ने अपना विचार बदलना पड़ा और विक्रम सम्वत् १८०० में श्रीगोविन्ददेवाचार्यजी महाराज को आचार्यपीठ के सिंहासन पर अभिषिक्त किया । आप संस्कृत और हिंदी के अच्छे विद्वान और विशिष्ट कवि थे । पद रचना बड़ी ही सुललित है । एक पद के अंत में देखिये जिसमें कि भगवान् श्रीसर्वेश्वर का नामोल्लेख भी हैं ।

जयति वृषभानु - नन्दिनी जगवन्दिनी, 
                                   कृष्णहियचन्दिनी रंग - - सेवी । 
प्रणत गोविन्द नंद नंद गोविंद नंद नंद सुख कन्द, 
                                   सर्वेश निजदास हरिप्रिया देवी ।।

           श्रीनिम्बार्काचार्यपीठासीन होने के पश्चात आप अनेक सन्तों की जमात एवं विद्वान को लेकर विशेषत: भ्रमण किया करते थे । अधर्म का दमन एवं धर्म की स्थापना करते हुए जीवों को वैष्णव धर्म में दीक्षित कर हरी सम्मुख करना ही एकमात्र आपके भ्रमण का मुख्य उद्देश्य था । इन आचार्यचरणों को बड़े-बड़े राजा एवं बादशाहा राजा एवं बादशाह निमंत्रण देकर अपने यहां बुलाने में अपना सौभाग्य समझते थे । एक समय धर्म प्रचारार्थ आप दिल्ली पधारें । आप में कई एक ईश्वरीय गुण विद्यमान थे । आचार्य मां विजानीयात् यह उद्धव के प्रति स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है आपकी गुण गरिमा श्रवण कर नगरवासियों की भीड़ उपदेशामृत श्रवण एवं दर्शन के लिए आने लगी । इनके उपदेशामृत की प्रशंसा सर्वत्र होने लगी । रसिक महानुभावों में एक अपूर्व भावों की विशेषता होती है । जिनकी भावपूर्ण भजन शैली एवं पराभक्ति के द्वारा जागतिक जीवो के लिए लौकिक एवं शारीरिक संबंधी सभी आसक्तियों का सहज ही छुटकारा हो सकता है । आपकी प्रशंसा श्रवण श्रवण कर नूरजहाँ ने भी दर्शन करने की इच्छा प्रकट की । बादशाह जहांगीर इन्हें सादर लेने के लिए पधारें बादशाह के आग्रह से आप महल में पधारें और अपने भक्तिरूप उपदेशामृत द्वारा सभी परिवार को कृतार्थ किया ।
         एक बार किशनगढ़ के नरेश श्रीसांवतसिंहजी ( श्रीनागरीदासजी ) और उनके छोटे भ्राता बहादुरसिंहजी में परस्पर अनबन रहती थी । कई राजा - महाराजाओं ने भी उन्हें अनेक बार समझाया, किंतु कलह शान्त नहीं हुआ । विक्रम सम्वत् १८१४ के आश्विन शुक्ल ९ शुक्रवार को रुपनगर से श्रीसाँवतसिंहजी और किशनगढ़ से श्रीबहादुरसिंहजी आपके कुशल समाचार पूछने आये । उस समय आप अस्वस्थ थे । दोनों भाई श्रीआचार्यचरणों के निकट बैठे थे । दोनों ही ने कुशल समाचार पूछें । इस पर महाराजश्री ने कहा - जब तक रुपनगर और कृष्णगढ़ राज्य का कलह शान्त न होगा हमारा स्वास्थ्य नहीं सुधर सकेगा । दोनों ही ने कहा क्या आज्ञा है । महाराज बोले रुपनगर की राज्य गद्दी पर सरदारसिंहजी को और कृष्णगढ़ की गद्दी पर बहादुरसिंहजी को अभिषिक्त करके आप ( साँवतसिंहजी ) श्रीवृन्दावन वास करिये । दोनों ने आज्ञा मानकर वैसी ही व्यवस्था की । सच है, महापुरुषों के वचनों में एक प्रबल शक्ति होती है । जिसके द्वारा बड़े से बड़े कार्य भी सहज ही में सुम्ंपन्न हो जाते हैं । वे समदर्शी होते हैं । उनमें सदा एकता की भावना बनी रहती है । वे द्वेष करने वालों में भी प्रेम भावना उत्पन्न  करा देते हैं । एक कवि ने कहा है कि - -

         कैंची  आरा   दुष्टजन  जुरे  देत  विलगाय ।
         सुई सुहागा सन्त - जन बिछुरे देत मिलाय ।।

        इनके द्वारा रचित "श्रीयुगल रस माधुरी" परमोत्कृष्ठ ग्रन्थ हैं । यह ग्रन्थ प्रकाशित भी हो चुका है । आचार्यों के मंगल बधाई एवं अन्य फुटकर पद भी बहुत हैं । श्रीवृन्दावन की समाज में जहाँ - तहाँ गाये जाते हैं । आपकी रचनाओं का एक बड़ा भारी संकलन "हरि गुरु सुयश भास्कर" के नाम से प्रख्यात है । सम्पूर्ण वाणी अनुपलब्ध है । इसकी हस्तलिखित एक प्रति भरतपुर राज्य में किसी काश्तकार के घर पर जैन मुनि श्रीकान्तिसागरजी को प्राप्त हुई थी जो अभी तक अप्रकाशित है । आप की समाधि स्थल एवं चरण पादुकायें आचार्यपीठ में सुशोभित हैं । और पाटोत्सव दिवस कार्तिक कृष्ण ५ ( पंचमी ) हैं ।।
                !! जय राधामाधव !!


[ हर क्षण जपते रहिये ]

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