श्री नारायण देवाचार्य जी का जीवन चरित्र
( अनत्यनवीना सखी के अवतार )
येनाचार्यचरितम सुरगविरचितं मनोहरं सरसम् ।
तं नारायणदेवाचार्य पूज्यं जगदगुरुं वन्दे ।।
श्रीनारायणशरणदेवाचार्यजी महाराज ने श्रीपरशुरामदेवाचार्यजी महाराज के परम प्रतापी शिष्य श्रीहरिवंशदेवाचार्यजी महाराज से मंत्र दीक्षा लेकर श्रीनिम्बार्काचार्य पीठ को विक्रम संवत् १७०० से लेकर विक्रम संवत् १७५५ तक सम अलंकृत किया था । वे अहर्निश श्रीगुरुदेव की आज्ञानुसार ही अपने सारे नित्यकर्म संपन्न करते थे । श्रीगुरुदेव ने एक बार आज्ञा प्रदान की कि इस स्थान पर प्रसाद ग्रहण करना तभी उचित है जब श्रीसर्वेश्वर प्रभु आरोग लें। श्रीगुरुदेव के इन वचनों से श्रीनारायणदेवाचार्यजी को बहुत प्रभावित किया। पर उन्हें कठिन परीक्षा भी देनी पड़ी ।
"एक बार श्रीहरिवंशदेवाचार्यजी महाराज श्रीनारायणदेवाचार्यजी को स्थान पर छोड़कर किसी प्रयोजनवश पुष्करराज पधारें। उन्हें यह स्मरण नहीं रहा कि श्रीनारायणदेव श्रीसर्वेश्वर प्रभु की आरोगे बिना प्रसाद ग्रहण नही करेंगे। श्रीनारायणदेवजी गुरुदेव की प्रतीक्षा करते रहे परंतु वे रात्रि पर्यन्त न लौटे। संतों ने निवेदन किया कि आप कुछ प्रसाद ग्रहण कर लें, किंतु ये मौन रहे एवं रात्रि व्यतीत हो गई। द्वितीय दिवस भी गुरुजी महाराज नहीं पधारे। फिर भी आपके चित्त में कोई विकृति उत्पन्न न हुई। इस प्रकार श्रीहरिवंशदेवाचार्यजी महाराज को ११ दिन लग गए पर गुरुभक्त का श्रीसर्वेश्वर प्रभु के प्रसाद के बिना भोजन कैसा ? ११ वें दिन श्रीगुरुजी महाराज पधारे और पूछे कि प्रिय नारायनदेव कहां है ? पता लगा कि मंदिर से प्रतिदिन प्रातः संध्या वंदना आदि प्रार्थना करके वे वन की ओर चले जाते हैं और वहीं प्रभु के गुणानुवाद किया करते हैं । इस बीच की गई आपकी रचनायें, जो बहुत ही महत्वपूर्ण थी, लिपिबद्ध ना होने के कारण वन प्रान्त में ही तिरोहित हो गई। श्रीहरिवंशदेवाजी ने जब अपने शिष्य की भाव दशा देखी तो उनके नेत्रों से अश्रुबिंदु टपक पडे और बोले कि नारायण क्या कारण है, जो इतने दुर्बल हो रहे हो । शिष्य का उत्तर था - गुरुदेव, सत्व शुद्धि कर रहा हूं। कोई विकृति आहार प्राप्त हो गया था जो आप की दया से अब दूर हो गया । इतना कहकर वह श्रीगुरुदेव के चरणों में गिर पड़े। श्रीहरिवंशदेवाचार्यजी गदगद होकर नारायणदेव को गले लगा लिया। उपस्थित भक्तवृन्द चकित विस्मित गुरुशिष्य का प्रेम मिलन देखते रहे।"
एक बाए श्रीनारायणदेवाचार्यजी महाराज पुष्कर में स्नान की भावना से पधारे। मार्ग में बीहड़ वन में कहराते हुए सिंह की दहाड़ सुनाई पड़ी। साथ में सन्त भयभीत हो गए। बोले कि प्रतीत होता है, यही कहीं सिंह है। अतः कहीं सुरक्षित स्थान में चलकर प्राण रक्षा करनी चाहिए । परंतु श्रीनारायणदेवाचार्य जी गुरुमुख से श्रवण कर चुके थे कि किसी प्राणी से भय नहीं करना चाहिए। इसलिए उन्होंने साथियों की बात नहीं मानी और उसी और चल पड़े जिधर से सिंह के कहराने की आवाज़ आ रही थी। शीघ्र ही वे सिंह के समीप पहुंच गए। इन्हें देख सिंह और जोर से दहाड़ने लगा। साथी सन्तों ने सोचा कि अब वे जीवित नहीं बचेंगे। डर कर वे भाग गए और निम्बार्कतीर्थ में पहुंचकर बोले की श्रीनारायणदेवाचार्य जी सिंह के मुख में चले गए। हम लोगों के बार-बार मना करने पर भी नहीं माने। यह सुनकर सब स्तब्ध रह गए।
इधर श्रीनारायणदेवाचार्यजी महाराज ने देखा की वनराज तीर लगने के कारण अत्यंत व्याकुल है । तीर उसके पैर में लगा था, अतः वह चलने में असमर्थ था। आचार्यश्री ने समीप जाकर अपना जलपात्र एक चट्टान पर रखें और श्रीसर्वेश्वर श्रीसर्वेश्वर कहते हुए शनै शनै उसके पैर में घुसे तीर को निकालने लगे। तीर बाहर आ गया। मुमुूर्षु मृगराज की वेदना कम हुई आचार्यश्री ने उसे पुचकारा पात्र के जल को उसके ऊपर छिड़का को उसके ऊपर छिड़का और आगे चल दिए मूक मृगराज उनकी ओर देखता देखता हुआ मानो कृतज्ञता व्यक्त कर रहा था।
पीछे से शिकारी आ गए गए और आचार्यश्री को देखकर बोले - - आप कहां कैसे आ गए ? यहां तो एक भयानक सिंह आया हुआ है । श्रीनारायणदेवाचार्यजी ने कहा - वह दुखी सिंह मेरा क्या अहित करता ? होगा यहीं कहीं। शिकारियों ने कहा चोट खाकर सिंह और भी क्रूर हो जाता है । आचार्य श्री ने हंसकर कहा वह अब साधु हो गया है । तीर निकाल कर मैंने वही वृक्ष में लगा दिया है। बधिको को विश्वास नहीं हो रहा था, वह तत्काल वहां पहुंचे और सारा दृश्य देख कर स्तब्ध रह गए वे विस्मय में पड़ गए और कहने लगे कि यह सर्वथा असम्भव है कि कोई मानव घायल सिंह के पास जावे और प्राण बचाकर लौटे। उन्हें विश्वास हो गया कि वस्तुतः ये कोई चमत्कारी पुरुष है। वे आचार्यश्री के चरणों मे गिर पड़े और क्षमा मांगने लगे। इस घटना की चर्चा आस पास के गाँव मे होने लगी और इससे प्रभावित होकर हज़ारो की संख्या में लोग आचार्यश्री के दर्शनार्थ आने लगे।
एक बार माथुर चतुर्वेदी एवं अन्य गणमान्य ब्राह्मण सलेमाबाद जाने के विचार से निकले। मार्ग में पता लगा कि आचार्यश्री पुष्करराज पधारे हैं अतः वे अपने अश्वों पर बैठकर पुष्कराज की ओर चल पड़े। रात में उन्हें दस्युओं ने पकड़ लिया और उनकी सभी वस्तुएं अपने अधिकार में कर ली। ब्राह्मण दुखी होकर बोली भैया भले श्रीनारायणदेवाचार्यजी से मिलबे आये, जो गांठ के कपड़ा, लोटा-लंगोटा हू छिन गए और सब तरियां मर गये। दस्युओं ने जब श्रीआचार्य चरण का नाम सुना तो का नाम सुना तो उन्हें बहुत पश्चाताप हुआ और उनको मार्ग दिखाते हुए सादर बीहड़ जंगल से पार कर आए । माथुर ब्राह्मण कहने लगे धन्य है आचार्यश्री जिनकी कृपा ते आज हम लोगन की की जान बच गई।
वे पुष्करराज आचार्य श्री के पास पहुंचे । आचार्यश्री ने उनका मृदु वचनों से स्वागत किया। श्रीश्रीभट्ट जी की तपोभूमि मथुरा के निवासियों से मिलकर आचार्यश्री गदगद हो गए। ब्राह्मण बोले महाराजश्री ! आपने तीर्थ पै यवनन की बड़ी ई कुदृष्टि ए और या समैं में जजिया कर हू लग्यो भयो है । सो आप कछु ऐसो मार्ग बताए देउ जासों देश वासिन कोउ भलो होय। आचार्यश्री ने आदेश दिया कि आजकल शासन के मुखिया अजमेर आये हुए हौ। यह उनकी धर्म यात्रा है आप लोग वहां चले जाओ। श्रीसर्वेश्वर प्रभु आप लोगों के संकल्प को अवश्य ही पूर्ण करेंगे।
आचार्यश्री का शुभाशीर्वाद प्राप्त कर समस्त ब्राह्मण अजमेर गए और परिचय देते हुए जजिया कर से मुक्त कर देने की प्रार्थना की। श्रीसर्वेश्वर प्रभु की प्रेरणा से उसने प्रार्थना स्वीकार कर ली और माथुर ब्राह्मणों को जजिया कर से मुक्त कर दिया। पता नहीं ऐतिहासिकों ने इन माथुर ब्राह्मणों के प्रयास एवं आचार्यश्री के सहयोग की चर्चा इतिहास के पन्नों में की है या नहीं। पर जो प्रमाण जजिया हटाने के संदर्भ में हमें मिला है वह पंडित श्रीकिशोरीनंदनजी ओझा, छोटी बस्ती पुष्कर, अजमेर की बही में मथुरा के ब्राह्मणों के लेख में प्राप्त है। यह उल्लेख सन् १६८० का है।
श्रीनारायणदेवाचार्य जी महाराज संवत् १७५० के आस - पास महाराजा जगतसिंह जी के अत्यधिक आग्रह पर उदयपुर पधारें। वहां कई वर्षों तक निवास किए और भक्ति का प्रचुर प्रचार-प्रसार करते रहे । श्रीप्रयागदासजी का स्थल और बाईजीराज का कुंड आदि अनेक मठ मंदिरों का निर्माण कराकर भक्ति के स्थाई केंद्र स्थापित कर दिए । आपकी रचना श्रीआचार्य चरितम एक अनुपम कृति है । जिसमें समस्त आचार्यों के चरित्र संक्षिप्त रूप में वर्णित है। आपने अपने गुरुदेव श्रीहरिवंशदेवाचार्य महाराज का स्मृति महोत्सव बड़ी धूमधाम के साथ गिरिराज में गोविंदकुण्ड पर मनाया था । जिसमें लाखों की संख्या में सन्त - महात्मा सम्मिलित हुए थे ऐसा महोत्सव व्रज में आज तक नहीं हुआ।
आपने उदयपुर में ही अपने मंगलमय देह का त्याग किया। आपका समाधि स्थल चरणपादुकायें उदयपुर में ही विद्यमान है जो कि कुंड स्थान के संरक्षण में है । आप का पाटोत्सव पौष शुक्ल ९ ( नवमी ) को मनाया जाता जाता है।
!! जय राधामाधव !!
[ हर क्षण जपते रहिये ]
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