दीक्षित एवं दीक्षार्थियों के पालनीय-नियम
शास्त्रों में बिना दीक्षा लिए मन्त्र का जप करना निषेध बतलाया है । कहा है कि जो साधक गुरुदेव से दीक्षा न लेकर केवल पुस्तकों को देखकर ही जप करने लग जाते हैं उन्हें ब्रह्महत्या के समान पातक लगता है-
पुस्तके लिखितान् मन्त्रा-नालोक्य-प्रजपन्ति ये ।
ब्रह्महत्या-समं तेषां, पातकं परिकीर्तितम् ।।
(मन्त्र महार्णव)
जैसे पत्थर पर बोया हुआ बीज अंकुरित नहीं होता वैसे ही मन्त्र की दीक्षा लिए बिना जप, तप,दान आदि सब साधन व्यर्थ हैं। जिस मनुष्य की बिना दीक्षा लिए ही मृत्यु हो जाती है वह अभीष्ट मार्ग निर्देश एवं सिद्धि के अभाव में सतत संसार चक्र में ही भ्रमण करता रहता है दीक्षा के सम्बन्ध में भगवान् शङ्कर का भी उपदेश है-अदीक्षितस्य वामोरू ! कृतं सर्वं निरर्थकम् ।
अर्थात् बिना दीक्षा ग्रहण किये जो कार्य किया जाता है वह सफल नहीं होता । अतः प्रत्येक स्त्री--पुरुष को गुरुदेव से ही संस्कार सहित वैष्णवी दीक्षा लेकर ( मन्त्र दीक्षा ) मन्त्र का जप करना चाहिए।
● दीक्षित साधकों का कर्तव्य है कि वे दीक्षा सम्बन्धी पालनीय नियमों का विधि पूर्वक पालन करें, क्योंकि बिना नियम पालन किये अभीष्ट--फल सिद्धि नहीं होती ।
अतएव निम्नांकित कतिपय पालनीय नियम संक्षिप्त रूप से भक्तों के हितार्थ उद्धृत किये जाते हैं-
(१) तिलक--भगवान् के द्वादश नामों द्वारा ललाट आदि शरीर के बारह अङ्गों पर प्रतिदिन गोपीचन्दनादि से द्वादश ऊर्ध्वपुण्डू तिलक करना चाहिए।
(२) शङ्ख-चक्र--दोनों भुजाओं पर गोपीचन्दनादि से नित्य धारण करना चाहिए।
(३) कण्ठी--तुलसी की कण्ठी गले में सदैव रखनी चाहिए । जन्ममरण या ग्रहण आदि के किसी अशौच में उसे बदलने की आवश्यकता नहीं। भगवत्प्रिया तुलसी हरिस्वरूप होने के करण कभी भी अपवित्र नहीं होती । यदि कण्ठी का सूत्र खण्डित हो जाय या गल जाय तो उसे दूसरे डोरे में पिरो कर अथवा नवीन
( संस्कार करा कर ) धारण करना चाहिए ।
(४) नाम--दीक्षा के समय गुरुदेव जो भगवत्सम्बन्धी नाम रखें उसी
नाम का उपयोग सदैव करना चाहिए।
(५) मन्त्र -- श्रीगुरुदेव से श्रीयुगल मन्त्र, श्रीगोपाल मन्त्रराज या श्रीमुकुन्दमन्त्र आदि जो मन्त्र प्राप्त हो कम से कम तीन माला तो उसका जप करना ही चाहिए।
(६) जप करते समय एक ही वस्त्र पहन कर जप न करें। अंगोछा दुपट्टा आदि दूसरे वस्त्र से शरीर को ढककर रखना चाहिए । मन्त्रजप उपांशु ( मन ही मन ) अथवा अत्यन्त धीरे-धीरे करना चाहिए। कभी कम कभी अधिक इस प्रकार जप न करें।निर्धारित संख्या पूर्ति हो जाने पर ही अधिक जप करना चाहिए।
(७) एकवस्त्र की भाँति अनेक वस्त्रों को जप के समय धारण न करें । जाप के समय रेशमी या ऊनी अथवा धुला सूती वस्त्र धारण करना चाहिए । ( वस्त्र शुद्ध होना ही केवल आवश्यक है)।
(८) ध्यान--जप करते समय नित्यनिकुञ्ज विराजित श्रीयुगलकिशोर भगवान् श्रीराधाकृष्ण का ध्यान करें।
(8) श्रीप्रियाप्रियतम युगलकिशोर की प्रतिमा या चित्रपट की नित्य ही सेवा करें।
(१०) भगवान् का चरणामृत और तुलसी लेकर ही भोजन करना चाहिए।
(११) वैष्णवों को प्रतिपक्ष की एकादशी एवं भगवज्जयन्तियों का व्रत अवश्य करना चाहिए।
(१२) अपने--अपने घर के द्वार पर शङ्घ--चक्र और ऊर्ध्वपुण्डू (तिलक) केचिह्न अवश्य लगाने चा शास्त्रों हिए,उनके दर्शन से सत्प्रेरणा मिलती है एवं आत्म-कल्याण में बड़ा योग मिलता है।
(१३) शास्त्र प्रतिपादित सदाचार का पालन करना परम कर्तव्य है ।
(१४) नित्य मन्दिर में हरिदर्शन, सत्सङ्ग एवं सन्त-सेवा से आत्मकल्याण होता है, अतः इससे वञ्चित नहीं रहना चाहिए ।
(१५) चलते फिरते सब समय भगवच्चिन्तन करते रहना चाहिए।
(१६) दुःखियों को देखकर दुःखी होना और सुखियों को देखकर सुखी होना वैष्णवों का स्वाभाविक लक्षण है ।
जय श्री राधामाधव !!
[ हर क्षण जपते रहिये ]
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