नान्या गतिः कृष्णपदारविंदात्, सन्दृश्यते ब्रह्मशिवादिवन्दितात् ।
( निम्बार्क वेदान्त दस श्लोकी )
भाग-3
(साधकों ! मैं हिमाचलप्रदेश में हूँ...और यहाँ की वादियों में बैठकर "श्रीनिम्बार्क चरित्र" को शाश्वत के "भक्तों के चरित्र" से लिख रहा हूँ ।
शाश्वत की अपनी समीक्षा है... इन भक्ति के आचार्यों के प्रति ।
इसकी निष्ठा भी है... इसका कहना है... आज के समय को देखते हुए... निम्बार्काचार्य युगानुकूल लगते हैं ।
कुछ गम्भीर विषय पर प्रकाश डाला हैं शाश्वत ने...पढ़ने जैसा है -
" आज जरूरत नही है... शास्त्रार्थं की... आज जरूरत नही है... खण्डन मण्डन की... आज जरूरत है...समन्वयवादी विचारधारा की ।
शाश्वत अपनी एक घटना का उल्लेख करता है...
" मुझे उस भागवत कथा गोष्ठी में बुलाया गया था... और मुझ से आग्रह किया था कि भागवत के सम्बन्ध में, मैं कुछ कहूँ ।
मैं क्या कहता... पर माइक मेरे सामने लगा दिया था ।
शाश्वत लिखता है - मैंने उस समय वहाँ बैठे भागवत के कथा वाचकों से पूछा...भागवत की ही रचना करने के बाद , व्यास देव को शान्ति क्यों मिली ?
शाश्वत लिखता है - उस समय सबका उत्तर यही था... कि व्यासदेव ने श्री कृष्ण के चरित्र को गाया... इसलिये उन्हें शान्ति मिली ।
पर मुझे ये उत्तर समझ में नही आया... मैंने उन व्यासों से फिर पूछा... ब्रह्मवैवर्तपुराण में भागवत से ज्यादा और विस्तार से कृष्ण लीला का गान किया गया है... वो व्यास देव की भागवत से पूर्व की कृति है...फिर शान्ति उस ब्रह्मवैवर्त पुराण से ही मिल जानी चाहिए थी !
तुम क्या कहना चाहते हो... अपनी बात कहो... एक कथावाचक को शायद मेरी बात चुभ गयी थी... ।
मैंने कहा था वहाँ...शान्ति आग्रह में नही है... स्वीकार में है ।
दार्शनिक धरातल पर उतरकर शाश्वत फिर लिखता है...
भागवत की दृष्टि समन्वयवादी है...और शान्ति समन्वय से ही आएगी ।
साधकों ! जब मैं ये सब उतार रहा था... शाश्वत की किताब से... तब मुझे शाश्वत एक बहुत विचारशील... और दार्शनिक लग रहा था ।
समन्वय का दूसरा नाम ही भक्ति है... अनेक वेदांताचार्यों में श्री निम्बार्क जी सबसे ज्यादा समन्वयवादी दिखाई देते हैं...
शाश्वत लिखता है... ।
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कल से आगे का प्रसंग -
दिव्य श्रीधाम वृन्दावन है...गोदावरी से चलते हुए यमुना किनारे पहुँच ही गए थे पिता अरुण ऋषि और माता जयंती... साथ में बालक नियमानन्द ।
दिव्य गिरिराज गोवर्धन के दर्शन किये अपने माता पिता के साथ ।
गिरिराज गोवर्धन में बालक नियमानन्द ने देखा... जगह जगह पर भगवान श्री कृष्ण के चरण चिन्ह अंकित हैं...नियमानन्द ने देखा... भगवान श्री कृष्ण की रस केलि की लीलाएं यहाँ तो चारों ओर बिखरी पड़ी हैं... बृषभानु सुता श्री राधा रानी... उनके गौर वर्ण के चरण... और श्री कृष्ण के साँवरे चरण... इनके दर्शन किये नियमानन्द ने ।
गम्भीर ध्यान की मुद्रा में बैठ गए थे... बालक नियमानन्द ।
माता पिता ने बालक को इस आध्यात्मिक उच्च स्थिति में जब देखा ..तब उन्हें बहुत आश्चर्य और आनन्द हुआ था... ।
मोर नाच रहे हैं... कोयल बोल रही है...
हिरण इधर उधर उछलते हुए दौड़ रहे हैं...
गिरिराज जी में गौ चरने के लिए आती हैं... उन्हें देखकर बालक नियमानन्द उसी भाव स्थिति में फिर चले जाते हैं ।
पिता जी ! यही वो गिरिराज पर्वत हैं ना... जिसे हमारे आराध्य श्री कृष्ण चन्द्र जू ने उठाया था ?
बालक आनन्दित होकर अपने पिता अरुण ऋषि से पूछते ।
तब अपनी गोद में उठा लेते हैं ऋषि अरुण... हाँ नियमानन्द !
यही वो गिरिराज जी हैं... जिसे भगवान श्री कृष्ण ने सात दिन तक अपनी ऊँगली में धारण किया था ।
देखो ! नियमानन्द ! जब सात दिन पूरे हुए ना... तब इंद्र को गलती का भान हुआ था... तब वो गोलोक में गया... और वहाँ से... सुरभि गाय को लेकर आया... ।
पर गाय क्यों ? बालक नियमानन्द पूछते हैं ।
क्यों कि गोपाल को गाय बहुत प्रिय है... अरुण ऋषि नियमानन्द के कपोल को चूमते हुए कहते ।
ये देखो ! ये रहे सुरभि गाय के खुर चिन्ह...
नियमानन्द ने बड़े प्रेम से उन चिन्हों को हाथ से छूकर अपने माथे से लगाया... अब तुम क्या कर रहे हो ये नियमानन्द ?
अरुण ऋषि ने सहजता में अपने बालक के साथ विनोद किया था ।
क्यों कि पिता जी ! मेरे गोपाल को गौ बहुत प्रिय है ना ! इसलिये... मैं उनकी प्रिय गाय सुरभि के चरणों को छू रहा हूँ ।
ऋषि दम्पति ने गिरिराज की परिक्रमा लगाई... हाथ पकड़ कर चलते रहे बालक नियमानन्द ।
इनके आनन्द का ठिकाना नही था आज... अपना बृज धाम जो पा लिया था नियमानन्द ने ।
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कहाँ रहेंगे ? ऋषि अरुण ने अपनी पत्नी जयंती से पूछा ।
पिता जी ! मैं कुछ कहूँ ? बालक नियमानन्द की बात सुनकर ऋषि अरुण ने "कहो" कहा ।
हम ऐसे स्थान पर रुकते हैं... जहाँ से गिरिराज गोवर्धन के दर्शन भी होते रहें...नियमानन्द ने कहा ।
स्थान देखा...गिरिराज के निकट ही देखा गया था ये स्थान ।
(वर्तमान में नीमगाँव या निम्बग्राम जो गिरिराज के निकट ही है )
यहीं पर आकर दम्पति निवास करने लगे थे... बालक नियमानन्द भी बहुत आनन्दित थे ।... एक दिन -
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हे यतिराज ! आप आज हमारे यहाँ ही भिक्षा ग्रहण कीजियेगा ।
माता जयंती ने देखा... एक दिव्य दण्डी सन्यासी... कुटिया के पास ही आगये थे...और बालक नियमानन्द को बड़े गौर से देख रहे थे ।
तब माता जयंती ने हाथ जोड़कर उन सन्यासी से निवेदन किया था... भिक्षा लेने की ।
पर देख लेना... माता ! कहीं सूर्यास्त न हो जाए... आप तो जानती ही हैं...सूर्यास्त के बाद हम सन्यासी भिक्षा ग्रहण नही करते ।
सन्यासी ने बड़ी विनम्रता से अपने सन्यास धर्म के नियम बता दिए थे ।
उस समय साथ में ही खड़े होकर बड़े ध्यान से बालक नियमानन्द सब सुन रहे थे ।
हाँ... मुझे पता है... हे यतिराज ! मैं बस तुरन्त आपके लिए भिक्षा बनाती हूँ ।
मैं स्नान करके आता हूँ... यमुना में... ।
ऐसा कहकर पास में ही यमुना जी थीं ..(उस समय गिरिराज के निकट ही यमुना जी बहती थीं)... बालक नियमानन्द भी चले गए थे... सन्यासी के साथ ।
स्नान किया... ध्यान किया... और जब देखा... अब सूर्यास्त होने में कम ही समय बचा है... तुरन्त बालक नियमानन्द को लेकर सन्यासी माता जयंती के पास चले आये ।
भिक्षा दो माते ! सन्यासी ने आवाज लगाई ।
बस कुछ समय और हे महात्मन् ! भोजन बन ही रहा है ।
माता जयंती ने सन्यासी से कहा ।
पर याद रहे... सूर्यास्त के बाद हम सन्यासी लोग भिक्षा नही लेते ।
हाँ मुझे पता है...
फिर पाक बनाने लग गयी थीं जल्दी जल्दी माता जयंती ।
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पुत्र नियमानन्द ! जाओ... और उन सन्यासी महात्मा को बुला लाओ ।
कह देना भिक्षा तैयार है ।
तभी ऋषि अरुण भी आगये... क्या हुआ जयंती ?
कुछ नही... एक सन्यासी महात्मा आये थे... उनको मैंने भिक्षा का आग्रह किया था... अब तैयार है भिक्षा ।
जयंती ने अपने पति ऋषि अरुण को बताया ।
तुम यहीं रहो नियमानन्द !... मैं जाकर बुला लाता हूँ ।
ऋषि अरुण गए... पर बहुत देरी हो गयी... अभी तक नही आये... जयंती सोच में पड़ गयीं, हो क्या गया ?
पुत्र ! चलो...हम दोनों भी चलते हैं... और देखते हैं कि बात क्या है ।
बालक नियमानन्द माता का हाथ पकड़ कर चल दिए थे ।
पर ये क्या ?
ऋषि अरुण बारम्बार आग्रह कर रहे हैं... पर सन्यासी हैं कि मान नही रहे... जयंती भी वहाँ पहुँच गयीं थीं ।
मैंने कहा ना... सन्यासी सूर्यास्त के बाद भिक्षा नही लेता... ।
अब सूर्यास्त हो गया है... इसलिये... मुझे आप आग्रह मत करो... हे ऋषि अरुण ! सन्यास धर्म के नियम आप भी अच्छे से जानते ही हैं ।
नेत्रों से टप् टप् टप् आँसू बहने लगे थे... अरुण ऋषि के... माता जयंती के... ओह ! हमारे यहाँ आया अतिथि भूखा सोयेगा ?
और अतिथि भी एक दिव्य सन्यासी !
हृदय रो पड़ा था पिता अरुण ऋषि का...
कुछ बोल भी तो नही सकते थे...अरुण ऋषि...कैसे कह दें आप अपने सन्यास नियम को छोड़ दें... ।
बालक नियमानन्द ने देखा...मेरी माँ रो रही है... मेरे पिता रो रहे हैं... ओह ! नियमानन्द को अच्छा नही लगा ।
सूर्यास्त हो गया है इसलिये मैं भिक्षा नही लूंगा ।
दो टूक कह दिया था... सन्यासी महात्मा ने ।
पर सूर्यास्त कहाँ हुआ ? बादल लग गए थे हे यतिराज !
बालक नियमानन्द ने आगे बढ़कर अपनी बात कही ।
नही बादल नही है... सूर्यास्त ही हुआ है... सन्यासी को बालक की बात मानना व्यर्थ सा लग रहा था ।
अरे ! नही भगवन् ! देखिये... बादल हट रहा है... देखिये... और सूर्य उदय हो गए...
बालक नियमानन्द ने सामनें खड़े एक नीम के पेड़ को दिखाया... उसी पेड़ से सूर्य दिखाई दे रहे थे ।
ये क्या हुआ ? सन्यासी स्तब्ध हो गए... अरे ! सूर्यास्त तो हो गया था ना !
भगवन् ! प्रत्यक्ष को क्या प्रमाण ? देखिये सूर्य अभी अस्त नही है ।
हाँ... सब लोगों ने देखा था इस दृश्य को तो... ।
चलिये अब भिक्षा ले ली जाए... जब सूर्यास्त हुए ही नही हैं तो ।
ऋषि अरुण बहुत प्रसन्न हुए थे...माता जयंती भी बहुत प्रसन्न हुयीं ।
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भिक्षा ग्रहण करके जैसे ही आचमन करवाया ऋषि अरुण ने सन्यासी को... ।
रात गहरी हो गयी थी... शाम का समय भी बीत चुका था ।
ये क्या हुआ ? अभी तो सूर्य दिखाई दे रहे थे... इस नीम के पेड़ में दिखाई दे रहे थे... बोलो ! बालक !... यहीं से दिखाई दे रहे थे ना ! सन्यासी विचलित से हो गए थे... उनके समझ में नही आरहा था कि ये हुआ क्या ?
सिर झुकाये खड़े हैं बालक नियमानन्द ।
बालक ! तुम बोलते क्यों नही हो ? तुमने ही कुछ चमत्कार किया था ?
सन्यासी नियमानन्द से ही पूछ रहे थे ।
हे यतिराज ! मैं सच कह रही हूँ... ये मेरा पुत्र है इसको कोई चमत्कार नही आता... ये तो बालक है ।
ध्यान से देखते रहे बालक नियमानन्द को सन्यासी ।
और देखते देखते समाधि लग गयी... ।
तुम सुदर्शन हो... तुम भगवान नारायण के चक्र सुदर्शन हो ।
कुछ ही देर में समाधि खुल गयी थी... सन्यासी की ।
और नियमानन्द को देखते हुए... वो बोलने लगे थे ।
तुमने ही मुझे नीम के इस वृक्ष में सूर्य दिखाया ना !
मैं तो तुम्हें तभी समझ गया था... जब तुम को इस कुटिया में देखा था... तुम्हारे मुख का तेज़ बता रहा था कि तुम कोई दिव्यात्मा हो ।
वो सन्यासी हाथ जोड़कर खड़े हुए हैं नियमानन्द के आगे ।
तभी एकाएक बबंडर सा घूमने लगा... प्रकाश की किरणें छिटकनें लगीं... और सामने प्रकट हुए... भगवान श्री विष्णु के आयुध सुदर्शन चक्र ।
पिता अरुण ऋषि से भी वो रूप नही देखा गया... माता जयंती तो आँखें बन्द करके ही बैठ गयीं ।
सन्यासी स्तुति कर रहे थे... सुदर्शन चक्र की ।
शान्त हुये सुदर्शन...नियमानन्द अपने रूप में वापस आये ।
तब उन सन्यासी ने उदघोषणा की...
ये साक्षात् भगवान नारायण के आयुध सुदर्शन चक्र के अवतार हैं... भगवान की प्रेरणा से ही इनका अवतार हुआ है...
इन्होंने अपनी शक्ति से मुझे नीम के वृक्ष में अर्क यानि सूर्य दिखा दिया... तो मैं अब इनका नाम रखता हूँ... "निम्बार्क"... ये निम्बार्क नाम से जगविख्यात होंगे... इनके द्वारा द्वैताद्वैत समन्वयवादी सिद्धान्त का प्रकाश विश्व में होगा... ।
ये कहते हुए... उन सन्यासी का भी रूप बदल गया ।
एक मुख के स्थान पर... चार मुख... और चारों मुझ से वेद ध्वनि निकल रही थी... ।
सृष्टि कर्ता ब्रह्मा जी !... अरुण ऋषि ने जब देखा... तो वो भी चकित हो गए थे।... माता जयंती ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया ।
हे अरुण ऋषि ! मुझे वैकुण्ठ से पता चला था... कि सुदर्शन चक्र ने पृथ्वी में अवतार लिया है...
बस ये सुनते ही...मैं आप लोगों के पास आगया... मैं देखना चाहता था कि... सुदर्शन चक्र किस रूप में और कैसे अवतरित हुए हैं ।
पर इनका ये दिव्य रूप देखकर मुझे अब बहुत आनन्द आरहा है ।
ब्रह्मा जी ने नाम रखा... निम्बार्क !
देवताओं ने पुष्प वृष्टी की... जय जयकार किया...
ब्रह्मा जी तभी अंतर्ध्यान हो गए थे ।
शेष प्रसंग कल...
Harisharan
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