!! श्रीनिम्बार्काचार्य जी का चरित्र !!
अंगेतु वामे वृषभानुजां मुदा, विराजमानामनुरूपसौभगाम्...
( वेदान्त दस श्लोकी )
भाग-2
( साधकों ! मैं हिमाचल प्रदेश में हूँ... आज ही आया हूँ... भागवत कथा है... ।
कल देर रात तक गाड़ी में बैठा बैठा... शाश्वत के "भक्तों के चरित्र" से "श्रीनिम्बार्क जी" के चरित्र को उतार रहा था ।
शाश्वत "श्रीनिम्बार्काचार्य चरित्र" में अपनी विशेष टिप्पणी लिखता है -
"किसी को अद्वैत पसन्द है... किसी को द्वैत पसन्द है... किसी को विशिष्टाद्वैत पसन्द है...किसी को द्वैताद्वैत पसन्द है ।
बड़ा प्रेमपूर्ण होकर लिखता है शाश्वत - " अजी ! मूल में तो सब रस के ही उपासक हैं... "रसो वै सः" वेद ने भी उस ब्रह्म को रस कहकर ही सम्बोधित किया है ।
नही नही... कोई सिद्धान्त छोटा या बड़ा नही है... सबकी अपनी अपनी पसन्द है... कोई दार्शनिक धरातल पर खड़े होकर उस रस का आनन्द लेता है... पर कोई है... जो फिलॉसफी के नाम से ही हाथ जोड़कर भाग जाता है... कोई ऐश्वर्य का एकान्त उपासक है... तो कोई माधुर्यरस में ही मुग्ध है ।
कोई अद्वैत मानकर ही आनन्दित है... तो कोई द्वैत का रस लेना चाहता है... कोई शान्त रस में ही राजी है... तो कोई सख्य रस की सुगन्धित आबोहवा में प्रसन्न है... कोई दास्य रस में ही अपनी धन्यता समझता है... तो कोई वात्सल्य रस में भींगा रहता है... ।
पर किसी के लिए तो मधुर रस ही सर्वोपरि रस है ।
शाश्वत गम्भीर विवेचना करता है - किसी को खटाई अच्छी लगती है... तो किसी को जब तक भर पेट मिठाई न मिले... कुछ अच्छा ही नही लगता... अब मिठाई में भी कोई गुड़ खाकर ही राजी है... तो किसी को रबड़ी ही चाहिये... ।
ऐसे ही श्री शंकराचार्य जी ने अद्वैत के माध्यम से शान्त रस की उपासना की... तो माध्वाचार्य ने द्वैत के माध्यम से उस ब्रह्म रस को चखा... श्री रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैत के माध्यम से... दास्य रस का आस्वादन किया... ।
पर श्रीनिम्बार्काचार्य जी ने मधुरभाव की उपासना की... और सिद्धान्त दिया... समन्वयवादी द्वैताद्वैत का ।
अब "को बड़ छोट कहत अपराधु"...
शाश्वत लिखता है... कोई छोटा नही है इन आचार्यों में... न कोई सबसे बड़ा है... सब अपना अपना रस ले रहे हैं... अपने अपने ढंग से ले रहे हैं... ।
अब आप देखिये... आपको मीठा रुचिकर लगता है... या खट्टा ?
शाश्वत लिखता है आगे - पूर्ण शास्त्रीय, वैदिक सत्सम्प्रदाय निम्बार्क सम्प्रदाय है... ये सम्प्रदाय मधुर उपासना का सम्प्रदाय है ।
इसके जो आचार्य हैं... इन्होंने निकुञ्ज की उपासना का प्रकाश किया है...
निकुञ्ज में ब्रह्म रूप श्री श्याम सुन्दर हैं... उनकी आल्हादिनी स्वरूपा श्री राधा रानी हैं... चारों ओर से सखियाँ घेर कर खड़ी हैं... धाम... श्री वृन्दावन धाम है... ।
शाश्वत आश्चर्य करता है... ऐसे दिव्य रस की उपासना !
भगवान को ऐश्वर्य भाव से भजने वाले और भी सम्प्रदाय हैं... और उनके आचार्य हैं... पर श्री निम्बार्काचार्य पहले ऐसे आचार्य हैं... जिन्होंने ऐश्वर्य कम... माधुर्य की ज्यादा प्रधानता दिखाई ।
हाँ इन श्री निम्बार्काचार्य जी के बहुत बाद में...श्री हरिदास जी... श्री हित हरिवंश जी... श्री हरिराम व्यास जी... जैसे रसिक सन्तों की लिस्ट वृन्दावन में बहुत लम्बी है...पर आधुनिक जितने रसिकाचार्य हुए हैं...सब इन श्री निम्बार्काचार्य जी से ही प्रभावित लगते हैं ।
शाश्वत लिखता है... आश्चर्य ! "रसोपासना" होकर भी शास्त्र विधि को छोड़ने की आज्ञा निम्बार्काचार्य जी नही देते हैं ।
वैदिक कर्मकाण्ड को भी मान्यता देते ही हैं आचार्य श्री निम्बार्क जी ।
इनका कहना है... भक्ति तो फूल है... फल है... पर उस फूल तक कोई पशु न पहुँच जाए... जो एक ही बार में सुन्दर खिले हुए फूल को तोड़कर मसल दे... इसलिये तो वार लगाया जाता है... काँटों का... या किसी का भी ।
शास्त्र के नियम, काँटों का वार है... जो तुम्हारे अंदर बढ़ रहे प्रेम के फूल तक किसी पशु इत्यादि को घुसने नही देगा... ।
इसलिये मधुर उपासना में भी श्री निम्बार्काचार्य जी ने वैदिक मर्यादा का पूरा पालन किया है ।
लिखा तो बहुत है शाश्वत ने...पर अब तो आप चरित्र का ही आनन्द लो... पढ़िये आगे के "श्रीनिम्बार्क जी" के चरित्र को ।
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***** कल से आगे का प्रसंग...
वत्स नियमानन्द ! छोटे से श्री बाल कृष्ण हैं... खेलते हुए नन्द की देहरी को पार करना चाहते हैं... पर फंस गए हैं ।
गोदावरी के किनारे अपने छोटे से पुत्र नियमानन्द को उनके पिता अरुण ऋषि श्री कृष्ण भगवान की लीलाएं बता रहे हैं... ।
गोदावरी में स्नान करने के लिए प्रातः ही चले आते हैं... ऋषि अरुण... पर अपने साथ अपने पुत्र को भी ले आते हैं...
और वहाँ गोदावरी के किनारे घण्टों चलती रहती थी श्री कृष्ण कथा ।
जब श्री कृष्ण की चर्चा करते अरुण ऋषि... तब तो वह मन्त्रमुग्ध ही हो जाते बालक नियमानन्द ।
पिता जी ! क्या आप भगवान श्री कृष्ण के अवतारकाल में थे ?
बालक नियमानन्द अपने पिता को जब श्रीकृष्ण भक्ति में डूबे हुए देखते... तब वह भावुक होकर पूछ बैठते थे ।
हाँ... वत्स नियमानन्द ! मेरा ये परमसौभाग्य था कि मैं भगवान श्री कृष्ण के अवतार काल में उनके साथ ही था...
हर समय आप साथ रहते थे पिता जी ?
मासूम सा प्रश्न उठा देते थे नियमानन्द ।
हँसते हुये नियमानन्द के कपोल को चूम लेते थे अरुण ऋषि ।
नही पुत्र ! हर समय कहाँ ?
जब जब ऋषियों की मण्डली भगवान श्री कृष्ण के दर्शन के लिए जाती थी... जिसमें देवर्षि नारद जी होते थे...... व्यास देव होते थे... शुकदेव जैसे वीतराग महात्मा होते थे... उन के साथ ये तुम्हारा पिता अरुण ऋषि भी होता था ।
आपने गोकुल में बाल कृष्ण के दर्शन किये ?
और जब किये तब वो कैसे लगते थे ? उनका रंग रूप कैसा था ?
वही तो सुना रहा हूँ तुम्हें नियमानन्द ।
अरुण ऋषि आनन्द में डूब जाते ।
एक बार नारदादि ऋषियों ने जब ये कहा... कि गोकुल में श्रीकृष्ण का अवतार हो चुका है... तब मैंने देवर्षि नारद जी से प्रार्थना की थी... कि हे देवर्षि ! अगर आप मुझे अधिकारी जानें तो श्रीकृष्ण का दर्शन गोकुल में सबको हो रहा है... मुझे भी आप ले चलें... मेरी ये प्रार्थना है ।
तब मुझे देखकर और मेरी श्रीकृष्ण दर्शन की लालसा देख कर... देवर्षि गोकुल में मुझे ले गए थे ।
आहा ! क्या लीला थी श्री कृष्ण भगवान की... अरुण ऋषि की आँखें बन्द हो रही थीं...
देहरी में फंस गए बाल कृष्ण...ये कहते हुए खूब हँसे थे अरुण ऋषि... बालक नियमानन्द को भी बड़ा आनन्द आरहा था ।
पुत्र ! देवर्षि नारद जी, शुकदेव, व्यास और मैं अरुण...
हम सब बाल कृष्ण की लीला देखते हुए देह भान भूल गए थे ।
दुनिया को पार लगाने वाला... आज स्वयं देहरी से पार होने की कामना कर रहा है... दुनिया जिससे डरती है... वो श्री कृष्ण इस बात से डर रहा है कि... कहीं मैं इस देहरी से गिर गया तो ।
फिर क्या हुआ पिता जी !
नियमानन्द की आँखों के सामने जो उनके पिता बता रहे थे... वो सारी लीलाएं प्रत्यक्ष् हो रही थीं...
ध्यान लग गया था अरुण ऋषि को...
अरुण ऋषि उसी नन्द महल में ही मानसिक रूप से पहुँच गए थे...
और सामने देख रहे थे... एक बालक साँवला है... तेज़ युक्त है... उसके देह से किरणें फूट रही हैं...
तभी एक मधुर स्वर गूंजा... चौंक कर जब अरुण ऋषि ने अपने नेत्र खोले... तो आश्चर्य चकित हो गए...
जो मानसिक रूप से देख रहे थे ऋषि अरुण... उसी लीला को नियमानन्द गा रहे थे... और गाते हुए शरीर का भान भी नही था ।
आहा ! कितने प्यार से गा रहे थे बालक नियमानन्द...
शान्ति कान्ति गुणमन्दिरं हरिं...
क्षेम सृष्टि लय मोक्ष कारिणम्...
व्यापिनम् परमहंस चंदिनं...
नौमी नंदगृह चंदिनं , प्रभुम् ।।
ये देखकर अरुण ऋषि परमाश्चर्य में डूब गए थे ।
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हे मेरी प्यारी रंगदेवी सखी ! तुम कहाँ जाकर रुक गयी हो...आओ ना !
अपने बृज मण्डल में आओ ना !... देखो ! हम दोनों ही तुम्हारा कितना इन्तजार कर रहे हैं !
आओ ना !
देखो ! कितनी सुन्दर गिरिराज की तलहटी है...और उसमें ये बड़ भागी मोर...ये शुक, ये पपीहा... ये हिरण... ।
यहाँ की हर रज कण... तुम्हें बुला रही है... सखी रंगदेवी ! आओ ना !... ।
हाँ... मैं आऊँगी ! मैं आऊँगी !... हे मेरी स्वामिन् ! आपकी सहचरी ही तो हूँ मैं... ।
नियमानन्द ! ओ ! नियमानन्द ! क्या हुआ तुम्हें पुत्र !
माँ जयंती स्वप्न में बड़बड़ाते हुए जब सुनती नियमानन्द को... तब वो घबड़ा जातीं ।
जब नियमानन्द उठ जाते... तब वो काफी देर तक सोते नही...
माँ जयंती उन्हें सुलातीं... तब वो कहते... मुझे दिखाई दे रहा है... माँ ! एक विशाल पर्वत है... उसमें से सुन्दर सुन्दर झरने बह रहे हैं... वृक्ष हैं... फलों और फूलों के कारण वे वृक्ष झुक गए हैं ।
मोर नाच रहे हैं... नियमानन्द बताते बताते रुक जाते हैं ।
और... और क्या देखते हो पुत्र ?
माँ जयंती ने और जानना चाहा ।
माँ ! भगवान श्री कृष्ण विराजे हैं दिव्य सिंहासन में... और उनके वाम भाग में...
कौन हैं ? उनके वाम भाग में ?
माँ ! उनके वाम भाग में...तपे हुए स्वर्ण की तरह गौर वर्णी... जिनकी आभा से हजारों चन्द्रमा का प्रकाश भी फीका पड़ने लग जाए...।
इतना कहकर चुप हो गए... नियमानन्द ।
पुत्र ! श्री कृष्ण कौन हैं ? माँ जयंती पूछती हैं ।
परब्रह्म हैं... श्री कृष्ण माँ ! । बालक नियमानन्द उत्तर देते हैं ।
फिर ये उनके वाम भाग में कौन हैं ?
ब्रह्म तो एक है ना ? ब्रह्म तो अद्वैत है ना पुत्र ?
नियमानन्द कुछ विचार करते... फिर अपनी आँखें बन्द कर लेते...
माँ ! वो दो भी हैं... और एक भी हैं ।
वो अद्वैत भी हैं... और द्वैत भी हैं ।
वो लीला करने के लिये दो बन जाते हैं... फिर लीला ही लीला में एक हो जाते हैं... ।
माँ ! मैं देख रहा हूँ... गोवर्धन गिरिराज में जब श्री कृष्ण और राधा का मिलन होता है... तब वो अद्वैत लगते हैं... पर माँ ! जब दोनों मिलन में नही होते... तब द्वैत यानि दो लगते हैं ।
तो सत्य क्या है पुत्र ! माँ जयंती पूछती हैं ।
सत्य तो दोनों ही है माँ ! द्वैत भी और अद्वैत भी ।
ब्रह्म एक है... पर माँ ! "एकाकी न रमते" ब्रह्म को रमण करना है... लीला करनी है... तो लीला करने के लिए तो दो ही बनना पड़ेगा ना... ।
बात जब बढ़ती गयी... पुत्र और माँ के इस सम्वाद में... तो गूढ़ बातें प्रकट होने लगीं... आश्चर्य हो रहा था माँ जयंती को... कि छोटा सा 4 वर्ष का बालक... और बातें करता है... इतनी बड़ी बड़ी... मानो कोई सिद्ध योगी हो ।
सिद्ध योगी क्या है तुम्हारे बालक के सामने माँ जयंती !
ये कहते हुए श्री राधा जी निकुञ्ज में हँसती थीं... ।
जब बात समझ में नही आती... तो आजाती है नींद ।
जयंती माँ को नींद आजाती थी ।
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पिता जी ! मैं श्री धाम वृन्दावन जाऊँगा... पिता जी ! मैं गोवर्धन गिरिराज जाऊँगा...
4 वर्ष का बालक जिद्द पकड़ कर बैठ गया था ।
माँ जयंती ने बहुत समझाया... पिता अरुण ऋषि ने भी बहुत समझाया... पर बालक नियमानन्द की जिद्द ।
सुनो ! जयंती ! बालक की इच्छा है... तो चलो हम लोग वहीं ब्रजवास करते हैं... ।
ये कहते हुए आनन्द छा गया था अरुण ऋषि के भी मुख मण्डल में ।
सच बात ये है कि... मेरी भी इच्छा थी... बहुत इच्छा थी कि मैं बृज वास करता हुआ... अपना जीवन बिता दूँ ।
आहा ! उस बृज में हम जाएंगे... मुझे तो लगता है... ये बालक नियमानन्द कोई साधारण बालक नही है... ।
कल की ही बात थी जयंती ! गोदावरी में बाढ़ आगयी थी... लोग डूबने लगे थे... तब पता नही नियमानन्द ने क्या किया... एकाएक इसकी ऊँगली में प्रकाश का पुञ्ज नाच रहा था ।
मैं क्या बताऊँ आपको हे ऋषिवर ! मुझे कभी कभी इसके मुख मण्डल का तेज़ देखकर लगता है...ये नारायण के चक्र का ही अवतार है ।
पता नही क्या है... पर कुछ विशेष है ये हमारा बालक ।
पर चलो ! इस बालक की भी जिद्द है...और मेरी भी प्रबल इच्छा है कि बृज वास करें...
नियमानन्द ने सुन लिया... कि मेरे पिता और माता अब बृज मण्डल चलने के लिये तैयार हो गए...
उनके आनन्द का कोई ठिकाना नही था...
बालक नियमानन्द...गा रहे थे...और ऋषि दम्पति चल पड़े थे... गोदावरी का तट छोड़कर यमुना जी के तट की ओर...
प्रातः स्मरामि युग केलिरसाभिषिक्तम् , वृन्दावनं सुरमणीय मुदारवृक्षम् ।
सौरी प्रवाहवृतमात्मगुण प्रकाशं, युग्मांग्रिरेणुकणिकान्चितसर्वसत्वम् ।।
पिता अरुण और माता जयंती आनन्दित हैं... गाते हुए बालक नियमानन्द अपने माता पिता का हाथ थामें... बृज की यात्रा के लिए निकल पड़े थे ।
शेष प्रसंग कल...
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