!! श्रीनिम्बार्काचार्य जी का चरित - 01 !!

 आज के विचार


!! श्रीनिम्बार्काचार्य जी !!


हे निम्बार्क दयानिधे गुणनिधे , हे भक्त चिन्तामणें।

(निम्बार्क स्तोत्र)

भाग-1

!! श्रीनिम्बार्काचार्य जी !!


(साधकों ! "भक्तों के चरित्र" में अब शाश्वत द्वैताद्वैत प्रवर्तक "श्री निम्बार्काचार्य जी" के चरित्र का गान कर रहा है ।


शाश्वत श्रीनिम्बार्काचार्य जी के बारे में कुछ भूमिका लिखता है... जिसे पहले पढ़ना, समझना अति आवश्यक है ।


" मैं उन दिनों बद्रीनाथ से ऊपर सतोपन्त की ओर जा रहा था... तब मुझे एक वैष्णव साधू मिले... उन्होंने मुझे वैष्णव आचार्यों के बारे में बताया... वैष्णवों में चार सम्प्रदाय प्रमुख मानी जाती हैं... बाकी और भी जो सम्प्रदाय हैं... वो सब इन चार से ही निकली हुयी हैं... ऐसा मानना चाहिए ।


वो साधू वैष्णव थे... और वैष्णव सम्प्रदाय में भी निम्बार्क सम्प्रदाय के थे ।


ये निम्बार्क सम्प्रदाय क्या है ? 


मेरा मासूम सा प्रश्न था... ।


वो मेरे प्रश्न को सुनकर हँसे... पहले तो उन्होंने मुझे शांकर मत के बारे में बताया... जो श्री शंकराचार्य जी के द्वारा स्थापित था ।


उसके बाद उन्होंने वैष्णव मत के बारे में बताना शुरू किया था ।


रामानुजाचार्य, माध्वाचार्य, विष्णुस्वामी और निम्बार्काचार्य ।


ये चार आचार्य ही चार वैष्णव सम्प्रदाय के संस्थापक हैं ।


पर आप तो निम्बार्क सम्प्रदाय के हैं ? इसके बारे में कुछ बताइये ।


मैंने पूछा था ।


श्रीनिम्बार्काचार्य जी का सिद्धान्त समन्वयवादी है... इसलिये मुझे ये प्रिय हैं... ।


वो रोटी बनाते जाते थे... और मुझे अनेकानेक अध्यात्म की गूढ़ता से मेरा परिचय कराते जाते ।


कैसे ? कैसे समन्वयवादी सिद्धान्त है श्रीनिम्बार्क जी का ? 


मैं भी उनका दिमाग खा जाता था ।


द्वैत और अद्वैत... झगड़ा इन दोनों में ही है ना ? 


किसी ने कहा... द्वैत है... वो दो है... जीव और ब्रह्म ।


किसी ने कहा... नही वो अद्वैत है... वो एक ही है ।


वो निम्बार्की साधू रोटी बनाते हुए मुझे वेद का अर्थ बताते थे ।


वेद को दोनों ही पक्ष मान्य हैं... वेद द्वैत भी मानता है... और वेद अद्वैत भी मानता है ।


पर श्रीनिम्बार्काचार्य जी ने दोनों का समन्वय करके दिखा दिया... ।


द्वैत का भी और अद्वैत का भी...वो द्वैत भी है... और अद्वैत भी है ।


इससे ज्यादा मैं समझ नही पाता था... क्यों कि वो साधू संस्कृत व्याकरण के बहुत अच्छे विद्वान थे... और संस्कृत मेरे ज्यादा पल्ले पड़ती नही थी ।


शाश्वत आगे लिखता है...वो निम्बार्की साधू बड़े प्रेम से कहते थे... कृष्ण के उपासना की जितनी सम्प्रदाय हैं... वो सारी की सारी सम्प्रदाय निम्बार्क से ही निकली हैं ।


ये तो बाबा ! आपका अपने सम्प्रदाय के प्रति ज्यादा ही अंध भक्ति है ।


मैं भी उनके मुँह लग गया था ।


नही... मैं सच कह रहा हूँ... प्रमाण से कह रहा हूँ... वो निम्बार्की साधू दृढ़ता से बोलते थे ।


अच्छा बताओ बाबा !... कब हुए थे श्री निम्बार्काचार्य जी ?... श्री रामानुजाचार्य जी के बाद में ही ना ? मैंने पूछा ।


वो बोले... नही... श्री शंकराचार्य जी से भी बहुत पहले ।


कितना पहले... मैंने पूछा ।


करीब 5000 वर्ष पहले... द्वापर युग जा रहा था कलियुग आरहा था... तब ।


मैं चुप हो गया... ये क्या कह रहे थे निम्बार्की साधू !


मुझे चुप देखकर वो फिर आगे बोले... युधिष्ठिराब्द... शुरू होता है... भगवान श्री कृष्ण के परमधाम जाने के बाद... और पांडवों ने जब स्वर्ग के लिए प्रस्थान किया... उस समय से ।


इधर युधिष्ठिर स्वर्ग गए हैं... और पृथ्वी में युधिष्ठिराब्द शुरू हो गया... । 


उसी समय श्रीनिम्बार्काचार्य जी का जन्म हुआ था ।


शाश्वत लिखता है... वो साधू मुझे बहुत अच्छी अच्छी बातें बताते थे ।


बाद में जब मैं हरिद्वार आया... और आनंदमयी माँ के आश्रम में रुका... तब मैंने वहाँ खूब शास्त्रों का अध्ययन किया था ।


वहाँ मैंने वैष्णव सम्प्रदाय के बारे में भी खूब पढ़ा ।


बात आज से हो रही "श्री निम्बार्काचार्य जी" के चरित्र की ।


इनका सही सही सम्वत् पता नही चल पाया... ।


निम्बार्कीय ग्रन्थों में मैंने जो पढ़ा... उसमें जो शोध है... वो यही है कि आज से पाँच हजार वर्ष पहले ही निम्बार्काचार्य जी हो गए थे ।


निम्बार्कियों के अपने तर्क हैं... उनका कहना है... कि निम्बार्काचार्य जी के भाष्य में अद्वैत का कहीं खण्डन नही मिलता ।


बल्कि देखा जाए तो श्री शंकराचार्य जी के भाष्य में भेदाभेद सिद्धान्त का खण्डन अवश्य मिलता है...इतना ही नही... श्री रामानुजाचार्य जी के भाष्य में भी भेदाभेद सिद्धान्त का खण्डन है... पर श्री आचार्य निम्बार्क जी ने कहीं किसी का खण्डन मण्डन नही किया ।


शाश्वत आगे लिखता है... मैं इन झंझटों में क्यों पड़ूँ ?


मुझे तो इन महापुरुषों के चरित्रों को गाना है... और अपने अन्तःकरण को पवित्र करना है... मेरा तो ये उद्देश्य पूरा हो ही रहा है... और मेरे पाठकों का भी अन्तःकरण पवित्र होगा... फिर मैं भी क्यों न श्रीनिम्बार्काचार्य जी की तरह ही... खण्डन मण्डन से अपने को दूर रखते हुए...द्वैताद्वैत सिद्धान्त पर ही चलूँ... समन्वयवादी सिद्धान्त ।


शाश्वत आगे लिखता है... आज समाज को समन्वय की जरूरत है... आज इस युग की जरूरत है... द्वैताद्वैत ।


मुझे वो निम्बार्की साधू कहते थे...श्री राधा कृष्ण के मधुर भाव की उपासना ही इस सम्प्रदाय का प्राण है ।


श्री कृष्ण ही ब्रह्म है...और ब्रह्म ही आनन्द है...वो ब्रह्म अकेला नही है... उसके साथ उसकी आल्हादिनी शक्ति श्री राधा रानी नित्य हैं...और इनके सम्बन्ध में आने पर ही जीव को आनन्द की प्राप्ति होती है... अन्यथा उसे आनन्दाभास तो होगा... पर सच में आनन्द नही होता... ।


आपको मैं ज्यादा गम्भीर बातें लिखकर बोर नही करूँगा... 


पढ़िये आज से... 'श्रीनिम्बार्काचार्य चरित्र" ।


*****************************************


 !! अथः श्रीनिम्बार्काचार्य जी चरित्र !! 


हे पिता जी ! गुणों ( सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण ) में चित्त जाता है... और चित्त में ये तीन गुण चले जाते हैं...इसके कारण जीव की मुक्ति नही हो पाती...जिसे मुक्ति की कामना हो... वो जीव बेचारा क्या करे ? 


सनकादि ऋषियों ने अपने पिता ब्रह्मा जी से ये प्रश्न किया था ।


ब्रह्मा जी सृष्टि के कार्य में लगे हुए थे... और सृष्टि का कार्य रजोगुण से प्रेरित होता है... और रजोगुण कभी भी सूक्ष्मतम चिन्तन नही करने देता... ।


इसलिये ब्रह्मा जी इसका उत्तर नही दे पाये...इधर उधर देखने लगे ।


तभी एक बड़ा प्यारा सा हंस उसी समय वहाँ प्रकट हो गया ।


सनकादि ऋषियों ने अपने पिता ब्रह्मा जी को आगे करके ये प्रश्न किया 


...आप कौन हैं ? 


इस प्रश्न को सुनकर हंस बोले...ये प्रश्न किसके लिए हैं ? 


सनकादि ऋषि बगलें झाँकने लगे ।


फिर हंस ने बोलना शुरू किया... 


आप कौन हैं ? ये आपका जो प्रश्न है... ये मेरे शरीर के लिए है या आत्मा के लिए ? 


सनकादि ऋषि प्रतिप्रश्न सुनकर स्तब्ध थे ।


अगर शरीर के लिए ये प्रश्न है... कि आप कौन हैं ? 


 तो शरीर नाशवान है... मिट्टी , पानी, वायु आकाश और प्रकाश... इसी से ये शरीर बना है... इसका क्या परिचय ? 


और रही आत्मा की बात... तो हे ऋषियों ! जो आपकी आत्मा वही मेरी आत्मा... भेद है कहाँ ? 


तुरन्त चरणों में साष्टांग प्रणाम किया ऋषियों ने... और कहा... आप कोई साधारण नही है... आप स्वयं नारायण भगवान ही हैं... जो हंस का रूप धारण करके आये हैं... ।


हे ऋषियों ! न गुण ( सत्व, रज, तम) की सत्ता है... न चित्त की सत्ता है... ये दोनों ही झूठे हैं... इसलिये गुणातीत हो जाओ... और चित्त की परवाह छोड़ दो... दोनों को ही त्याग दो ।


और मुझ एक समान , नित्य अखण्ड रहने वाले ब्रह्मतत्व का ही ध्यान करो ।


इतना कहकर अखण्ड आनन्द का ज्ञान, मात्र देखकर ही दे दिया श्री हंस भगवान ने... सनकादि ऋषियों को ।


और वहाँ से अंतर्ध्यान हो गए ।


तभी देवर्षि नारद जी वहाँ आ पहुंचे थे ।


उस भूमा आनन्द में डूबे हुए जब देखा देवर्षि नारद जी ने... अपने बड़े भाई सनकादि ऋषियों को... तब उन्होंने जाकर ऋषियों से प्रार्थना की... हे मेरे श्रद्धेय सनकादि ऋषियों ! 


आपने ऐसा क्या पाया...कि आप आनन्द में डूबे हुए हैं...हे ऋषियों !... मुझे भी उस आनन्द को देने की कृपा करें ।


तब सनकादि ऋषियों ने नारद जी को देखा... और वही ज्ञान... नारद जी को प्रदान किया... ।


ज्ञान की यही परम्परा आगे बढ़ती जाती है... और श्री नारद जी ने ही श्रीनिम्बार्काचार्य जी को यही ज्ञान प्रदान किया था ।


***************************************


निकुञ्ज में... 


श्री राधा रानी विराजमान हैं...उनके दाहिने भाग में श्री श्याम सुन्दर बैठे हैं ।


चारों ओर से सखियाँ घेर कर खड़ी हैं... किसी के हाथों में चँवर है... तो किसी के हाथों में पँखा है... कोई जल की झारी लेकर खड़ी है... तो कोई पान की बीरी लेकर खड़ी है ।


तभी एकाएक श्री प्रिया जू ने... अपनी प्रिय सखी श्री रंगदेवी जी को अपने पास बुलाया ।


और बड़े प्रेम से कहा... हे रंगदेवी ! हमारी एक इच्छा है... कितनी मधुर आवाज में श्री राधा रानी बोलीं थीं 


सिर झुकाकर श्री रंगदेवी जी ने कहा... आप आज्ञा करें स्वामिनी ! 


हे मेरी प्यारी रंगदेवी सखी ! कलियुग आगया है... इसके कारण पृथ्वी में सब कुछ नष्ट भ्रष्ट हो रहा है...और जो बड़े बड़े सिद्ध योगिन्द्र हैं... उनका हृदय तो शुष्क ज्ञान और शुष्क योग के कारण अत्यंत कठोर भी हो गया है... उस हृदय में "रस" नही है... ।


और रस ही नही है... तो फिर ब्रह्म भी नही है... इस रहस्य को ये लोग नही समझ पा रहे ।


क्यों कि रस ही तो ब्रह्म है ना ?


और रस यानि प्रेम... ।


हे मेरी प्यारी सखी ! तुम जाओ पृथ्वी में...और मेरे इस "रस तत्व" का प्रसार करो... लोगों को समझाओ...प्रेम नही है तो कुछ नही है... लोगों को बताओ... रस हीन ज्ञान व्यर्थ है ।


इतना कहकर शान्त हो गयीं थीं श्री राधा रानी ।


रंगदेवी सखी जी ने श्री श्याम सुन्दर की ओर देखा... मुस्कुराते हुए अपना सिर हिला दिया श्याम सुन्दर ने भी ।


तब युगलवर के चरणों में प्रणाम करते हुए... श्री रंगदेवी जी ने अवतार लिया... श्री निम्बार्काचार्य के रूप में ।


***************************************


हे नाथ ! कृपा करो...हे नाथ ! पृथ्वी से धर्म का लोप हो रहा है ।


सब ऋषि मुनियों ने मिलकर ब्रह्मा जी से प्रार्थना की... और ब्रह्मा जी सभी को लेकर चले गए क्षीर सागर...।


सबने जाकर प्रार्थना की भगवान नारायण से... 


हे भगवन् ! आपका कृष्णावतार का कार्य तो पूरा हो गया... और आप अपने धाम आ भी गए ।


पर पृथ्वी में हाहाकार मचा हुआ है... कलियुग के आगमन के कारण... वहाँ के ऋषि महर्षियों को बहुत कष्ट हो रहा है... इसलिये आप पधारिये... फिर पृथ्वी में ।


भगवान नारायण ने अपने नेत्रों को खोला... और ऋषियों और ब्रह्मा जी को देखकर कहा...अब मेरा "सुदर्शन चक्र" अवतार लेगा ।


हे सुदर्शन ! जाओ ! पृथ्वी में जाकर अवतार लो... और मुझ से जो विमुख है... उन्हें मेरी भक्ति और प्रेम के मार्ग में लगाओ ।


जाओ ! 


सुदर्शन चक्र की हजारों आरायें हैं... वो एक साथ जब घूमता है... तब प्रलय आजाता है... पर भक्तों के लिए... ये आरायें प्रकाश का कार्य करती हैं... मार्ग दिखाई नही दे रहा... कलियुग के लोगों को... उन्हें मार्ग दिखाओ... ।


जाओ... निम्बार्क रूप से प्रकट हो जाओ ..पृथ्वी में... 


भगवान नारायण की आज्ञा से... सुदर्शन चक्र पृथ्वी में अवतरित होकर आये... और आचार्य श्री निम्बार्क जी के नाम से प्रसिद्ध हुए ।


************************************


देवि जयंती ! मैं भी गया था... भगवान श्री कृष्ण के साथ उस मिथिला की यात्रा में... 


अरुण ऋषि अपनी धर्म पत्नी जयंती को ये कथा सुना रहे थे ।


गर्भवती हैं जयंती... गोदावरी का पुण्य स्थान है... वैदूर्यप्तत्तनम्... वर्तमान में महाराष्ट्र... पैठण के पास में... मुंगी पैठण... में अरुण ऋषि और उनकी धर्म पत्नी जयंती ये दोनों निवास करते हैं ।


गर्भवती स्त्री को भगवतकथा सुनाई जाए... तो गर्भ के बालक में अच्छे संस्कार पड़ते हैं... पर अरुण ऋषि तो अच्छे संस्कार ही मात्र डालना नही चाहते... ये तो चाहते हैं कि मेरा पुत्र श्री कृष्ण भक्त बने... मेरा पुत्र कृष्ण भक्ति का प्रचार करे ।


इसलिये तो आज अपनी गर्भवती पत्नी को श्री कृष्ण कथा सुना रहे हैं... नही नही...स्वयं भी तो गए थे उस समय...अरुण ऋषि ने भी तो कितने प्रसंगों में श्री कृष्ण के दर्शन और संग का सौभाग्य पाया है ।


देवी ! जयंती ! उस समय श्री शुकदेव जी थे... श्रीनारद जी थे... व्यास जी भी थे... .. और मेरा सौभाग्य की श्री कृष्ण ने मुझे भी अपने साथ ले लिया था ।


श्रुतदेव नामक ब्राह्मण के यहाँ ले गए थे हम सब को... मिथिला में ये ब्राह्मण रहता था ।


पत्नी जयन्ती देवी भी बड़े आनंद से सुन रही थीं श्री कृष्ण कथा ।


अरुण ऋषि ने कहा... 


श्रीकृष्ण को देखते ही... वो मिथिला का श्रुतदेव नामक ब्राह्मण तो नाचने लगा... चरणों में गिर गया... धरती में लोटने लगा ।


तब श्री कृष्ण भगवान ने कहा था उस ब्राह्मण से... 


हे ब्राह्मण ! मैं अपनी पूजा या आराधना से इतना प्रसन्न नही होता... जितना मैं... अपने भक्तों की आराधना और सेवा से प्रसन्न होता हूँ... हे श्रुतदेव ! तुम मेरे साथ आये इन सन्तों और ऋषियों का आदर करो... इनको प्रणाम करो... तब मुझे अच्छा लगेगा ।


ये कहते हुए ऋषि अरुण के नेत्र सजल हो गए थे ।


तभी तो श्री कृष्ण को भक्त वत्सल कहा जाता है ना... अपने लोगों का कितना ख्याल रखते हैं भगवान ।


पत्नी जयंती ने पूछा...कैसे लगते थे श्री कृष्ण ? 


आहा ! देवी जयंती ! मैं क्या बताऊँ...उनका रूप, उनका माधुर्य उनकी चितवन...ये कहते कहते ध्यान लग गया अरुण ऋषि को ।


अरुण ऋषि की पत्नी जयंती भी श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुए सो गयीं ।


पर जयन्ती के पेट में आये...निम्बार्क सोये नही...वो गुन रहे हैं... रंगदेवी, जो श्री राधा जी की अष्टसखियों में मुख्य हैं... वो निम्बार्क स्वरूप में स्थित हो गयी थीं...और श्रीनारायण के चक्रावतार तो हैं हीं - श्री निम्बार्काचार्य जी ।


*******************************************************


कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा... 


अरुण ऋषि आज बहुत प्रसन्न हैं... जयंती देवी के मुख मण्डल में दिव्य प्रकाश छा गया है...।


कोई देखे तो ऐसा लग रहा है जैसे... सूर्य भगवान ही जयंती के उदर में आकर बैठ गए हों ।


सांयकाल का समय हुआ...


और उसी समय... जयंती देवी ने एक पुत्र को जन्म दिया ।


जिनका वर्ण साँवला था... बड़े सुन्दर सुन्दर नेत्र थे... अरुण ऋषि के यहाँ जब बालक का जन्म हुआ... चारों दिशाएँ सुन्दर हो गयीं... गोदावरी का जल शुद्ध हो गया... यज्ञ की वेदी से सुगन्धित धुआँ उड़ने लगा... ।


समय बीतने में क्या लगता है... समय तो जा ही रहा है ।


नामकरण का समय आया... ब्राह्मणों ने नाम रखा... "नियमानन्द"...जयंती माता तो अपने नियमानन्द का मुख देखती हैं और बारम्बार मुख को चूम लेती हैं ।


आज नित्य निकुञ्ज में यही कीर्तन चल रहा था... श्री राधा रानी और श्याम सुन्दर बहुत आनन्दित थे... सखियाँ गा रही थीं... और पृथ्वी में नियमानन्द झूम रहे थे... 


राधे कृष्ण राधे कृष्ण कृष्ण कृष्ण राधे राधे 

राधे श्याम राधे श्याम श्याम श्याम राधे राधे ।


शेष प्रसंग कल... 


Harisharan



[ हर क्षण जपते रहिये ]

राधेकृष्ण राधेकृष्ण कृष्ण कृष्ण राधे राधे | राधेश्याम राधेश्याम श्याम श्याम राधे राधे ||


Join Telegram

Post a Comment

0 Comments