४७) श्री बालकृष्ण शरण देवाचार्य श्री श्रीजी महाराज का जीवन चरित्र

श्री बालकृष्ण शरण देवाचार्य श्री श्रीजी महाराज का जीवन चरित्र || Biography of Shri Balkrishna Sharan Devachary Shri ShriJi Maharaj


श्री बालकृष्ण शरण देवाचार्य श्री श्रीजी महाराज का जीवन चरित्र || Biography of Shri Balkrishna Sharan Devachary Shri ShriJi Maharaj

( रतिमंजरी सखी के अवतार )

मन्त्रराजजपादित्य - होमस्वाध्यायसेविनम् ।
रासलूईलारसाससक्तं भक्तिनाष्ठं तपोधनम् ।।
तं जगद्गुरु - निम्बार्काचार्यपीठाधिराजितम् ।
श्रीबालकृष्णशरणदेवाचार्य सदा$$श्रे ।।

   अनन्त श्रीविभूषित जगद्गुरु निम्बार्काचार्य पीठाधीश्वर श्रीबालकृष्णशरणदेवाचार्य श्री "श्रीजी" महाराज का आविर्भाव विक्रम संवत् १९१७ के चैत्र कृष्ण त्रयोदशी सोमवा को जयपुर राज्यान्तर्गत चाकसू तहसील के पुरण की नागल ग्राम में एक परम पावन गौड़ ब्राह्मण वंश में हुआ था । आपके पिताश्री का नाम पंडित श्रीगोपाल जी शर्मा गौड़ था और माताश्री का नाम श्रीललितादेवी था ।  विक्रम संवत् १९६३ चैत्र कृष्ण द्वादशी सोमवार को ४६ वर्ष की अवस्था में आप श्रीनिम्बार्काचार्य पीठ पर सिंहासनारूढ़ हुए ।
   आचार्य प्रवर श्रीबालकृष्णशरणदेवाचार्य जी महाराज का वैदुष्य और सारल्य अनुपम था । श्रुति - स्मृति पुराणादि शास्त्रों, भक्ति परक ग्रंथों तथा स्वसांप्रदायिक - वेदान्त - उपासना ग्रंथों पर आप का अनुशीलन अनुपम एवं गम्भीर था । श्रीमद्भागवत - गीता तो आपश्री के कर कमलों से पृथक ही नहीं होती थी । श्रीसुदर्शन कवच आदि का पठन प्राय: चलता ही रहता था । श्रीगोपालमंत्रराज का जाप तो प्रतिदिन अनुष्ठान के रूप में दशांश हवन के साथ चलता ही रहता था । सूर्य के प्रखर ताप में सभी ऋतुओं में दैनिक खड़े - खड़े श्रीमंत्रराज का जाप क्रम एक घंटे से भी अधिक समय तक सूर्य की ओर बिना पलक गिराये एक दृष्टि रखते हुए किया करते थे । ऐसी कठोर उपासना आपकी यावज्जीवन चलती रही ।
    वस्तुतः आपकी शांति, कान्ति, दयालुता, गंभीरता इतनी महनीय थी जिसे स्मरण करते ही आज भी प्रत्यक्ष की भांति अनुभूति होने लगती है इस प्रकार का महान गुण गरिमापूर्ण जीवन जहां तहां मिलना दुर्लभ है । आपके परमोच्ञतम आदर्शमय जीवन से प्रभावित होकर अनेक शास्त्रोचार्यो मनीषीजनों ने आपश्री के सनातन शरणापन्न ग्रहण किया । श्रीनिंबार्क संप्रदाय के लब्ध प्रतिष्ठ महामनीषी पंडित प्रवर श्रीरामप्रताप जी शास्त्री ( प्रोफेसर नागपुर ) ब्यावर राजस्थान निवासी में आपश्री से शरणागति प्राप्त कर अपना परम सौभाग्य माना । पंडित श्रीलाडलीशरण जी ब्रह्मचारी न्याय - व्याकरण - व्याकरण - काव्यतीर्थ भी आपश्री के ही शिष्य थे जो कि आचार्य पीठ के अधिकारी पद पर भी रहे । जोधपुर के महान यशस्वी बैरिस्टर श्रीहंसराज जी सिंघवी भी आपश्री ही के कृपापात्र थे । जोधपुर, बीकानेर, बूंदी आदि उच्चतम स्टेटों ( राज्यों ) के राजा - महाराजा, राजरानियां, मंत्रीगण आपश्री के शिष्य प्रशिष्य थे । मारवाड़ के प्राय: सभी जागीरदार आपश्री में परम श्रद्धा रखते हुए शरणापन्न होकर कृतार्थता का अनुभव करते थे
      इसी प्रकार जब आपश्री का दक्षिण यात्रा में हैदराबाद पधारना हुआ तब हैदराबाद स्टेट के नवाब ने आपश्री कि विराट् शोभायात्रा का आयोजन किया और स्वयं ने भावनायुक्त होकर अपनी श्रद्धा समर्पित की । राजस्थान निवासी सैनिक कमांडर श्रीहनुमानसिंह जी राठौड़ ने हैदराबाद की उस शोभायात्रा स्वागत समारोह में अतीव तत्परता से भावनायुक्त होकर अपनी सेवा प्रस्तुत की ।
     आपश्री के आचार्यत्व काल में ही अजमेर राज्य के सुप्रसिद्ध ठिकाना खरवा के राव साहब श्रीगोपालसिंहजी तथा श्रीमोडसिंहजी ने अजमेर राज्य के तत्कालीन कमिश्नर साहब का सेना सहित इसी आचार्यपीठ में मिलना हुआ था । कारण यह था कि यह दोनों ही सरदार क्रांतिकारी विचारों के थे और देश के स्वतंत्र बनाने हेतु अंग्रेजों के विरुद्ध ही प्रच्छन्न रूप से जहां - तहां रहते हुए अपने कार्य में पूर्ण संलग्न थे ।
     यह दोनों सरदार श्रीनिम्बार्काचार्यपीठ से ही दीक्षित थे । अपने इस गुरुद्वारे में इतनी बड़ी श्रद्धा भावना थी । एक दिन रात को घूमते हुए यह रोहण्डी ठिकाना में कुछ दिवस निवास कर यहां आ गए और यही रात्रि विश्राम किया । यह देखकर किसी को गुप्तचर ने अजमेर कमिश्नर को सूचना कर दी कि प्रातः काल होते होते ही पुलिस एवं फौज के जवानों ने घोड़े पर चढ़कर मंदिर को चारों ओर से घेर लिया । यह स्थिति देखकर दोनों सरदार भी अपने-अपने अस्त्र शस्त्र संभालकर लड़ने को तैयार हो गए । 
     तब आचार्यश्री को यह बात बात ज्ञात हुई तो ऐसा करने से उन्हें निषेध किया और कहा कि ऐसा करने से आपके इस स्थान को भी क्षति पहुंचेगी एवं आपके स्वरूपानुकूल शोभाजनक भी नहीं । आप किसी प्रकार का विचार न करें श्रीसर्वेश्वर भगवान सब अच्छा ही करेंगे। इधर कमिश्नर साहब ने महाराजश्री से पूछकर भीतर आकर उनसे मिलना चाहा । तब महाराजश्री ने कहलवाया कि आप बिना शस्त्र के आवें और वह भी आपसे बिना शस्त्र ही मिलेंगे । इस पर कमिश्नर आए और महाराजश्री के माध्यम से मर्यादानुसार उनसे मिले और बातचीत कर सम्मान पूर्वक उन्हें अजमेर लाकर बाद में खरवा पहुंचा दिया ।
      जब आप दोनों सरदार मंदिर से चलने लगे तो अपने शस्त्राशस्त्र ( हथियार ) और ऊँट ये सब भगवान् के भेंट कर दिए थे । जिनमें से कुछ हथियार तो वर्तमान आचार्यश्री ने भारत - चीन के युद्धकाल में भारत सरकार के सुरक्षाकोष में जमा कराए थे तथा एक दो आचार्य पीठ में सुरक्षित है ।
    उदयपुर ( मेवाड़ ) के हिज हाईनेस महाराणा साहब श्रीगोपालसिंहजी आपश्री के चरणो में अगाध निष्ठा रखते थे । ठिकाना कादेड़ा ( अजमेर ) के स्वर्गीय ठाकुर साहब का जन्म आपश्री के शुभाशीर्वाद का ही सफल था । आचार्यप्रवर की दयालुता इतनी असीम थी कि जिसका वर्णन लेखनी से व्यक्त करना कठिन है । राजस्थान में जब कभी अकाल पड़ जाता था तो श्रीचरण अपने सहज दयालु स्वभाव वश कितनी भी प्रतिकूलता होने पर भी दीनों की, अनाथ - असहायों की अन्न - वस्त्रादि के दान से सहायता करने में बड़े ही आनंद का अनुभव करते थे । हमारे पीठ के कामदार स्वर्गीय श्रीजगदीशचंद्रजी वैद्य तथा श्रीरामलालजी, श्रीजयनारायणजी जासरावत एवं स्वर्गीय श्रीकन्हैयालालजी गौड, स्व० श्रीघासीलालजी गौड़ को आदि ने सुना है तथा आपश्री की अंतिम अवस्था के ५-६ वर्षों में देखा भी है, कि काश्तकारों का हासिल जो बकाया चढ़ा रहता उन्हें कामदार लोग बुला कर वसूल करने के लिए डांट फटकार लगाकर उन्हें रात में बंद कर देते थे । तो एक-दो रात में जब कभी मौका पाकर वे रात में जाकर महाराजश्री से प्रार्थना करते तब उनको दयावश होकर कहते कि मस्तराम दरवाजे की चाबी लेकर ताला खोलकर इनको चुपचाप बाहर कर आओ, देखना किसी को भी मालूम ना पड़े ।
दूसरे दिन उन्हें न पाकर जब कामदार प्रार्थना करने लगते तो आपश्री कह उठते कि उन बेचारों के पास उनके बाल - बच्चों के खाने जितना अन भी नहीं है तो तुम्हें कहां से देंगे । जब होगा आगे दे देंगे । यह थी आपश्री की स्वाभाविकी दयालुता ।
    भगवान श्रीसर्वेश्वर प्रभु के १०८ तुलसी दलार्पण करना आपका प्रतिदिन का नियम था । कथा, सत्संग, श्रीभगवन्नाम संकीर्तन आदि सत्कार्य आपके आचार्यत्वकाल में प्रतिदिन चलते ही रहते थे । गौशाला, संस्कृत पाठशाला, सन्तसेवा प्रर्भति पारमार्थिक कार्य भी आपके संरक्षण में सदा ही चलते रहते थे । विक्रम संवत् १९६४ में आपश्री के करकमलों द्वारा ही यहां श्रीसर्वेश्वर संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना हुई । भगवान् श्रीराधामाधवजी के निज मंदिर के चाँदी के किंवाड़ो की जोड़ी भी आपश्री आचार्यत्व काल में ही बनी थी ।
    आपश्री का स्वाभाविक सरलता का जितना भी वर्णन किया जाए अत्यल्प है । अजातशत्रुता का आप में प्रत्यक्ष दर्शन होता था । प्रतिकूल आचरण करने वाला भी आपके सम्मुख नतमस्तक हो जाता था । किशनगढ़ नरेश महाराजा श्रीमदनसिंहजी जब भी श्रीनिम्बार्काचार्य पीठ आते महाराजश्री के मंगलमय दर्शन कर अत्यंत हर्ष का अनुभव करते थे । श्रीचरणों का जब भी परिभ्रमणार्थ प्रातः या अपराह् में पधारना होता तो महाराजश्री श्रीमदनसिंहजी से स्वयं आगे बढ़कर अपने हाथों से श्रीचरणों को पादुका धारण कराकर परम सुखी होते थे । इसी भाँति किशनगढ़ नरेश श्रीयज्ञनारायणसिंहजी महाराज भी आपश्री के पाद पद्मों में अपार श्रद्धा रखते थे । इस प्रकार अगणित विशिष्ट जनों द्वारा परिपूजित थे । आपश्री के आशीर्वाद का प्रत्यक्ष फल मिलता था । अनेक श्रद्धालुजनों ने आपश्री के शुभाशीर्वाद का अनुपम लाभ प्राप्त किया । चारों धाम की यात्रायें एवं श्रीवृंदावन कुम्भादि पर्वो पर आपका ऐतिहासिक पादार्पण बड़ा ही गौरवपूर्ण रहा है । जो कि उस समय के लिए चित्रों से प्रत्यक्ष अनुभव होता है ।
     धर्म प्रचारार्थ अनेक स्थानों पर आपश्री का भ्रमण चलता रहता था, दक्षिण भारत में भी आपश्री का पौष शुक्ल तृतीया विक्रम संवत् १९६४ से श्रावण कृष्णा दशमी विक्रम संवत १९६५ तक लगातार भ्रमण हुआ । यह यात्रा किशनगढ़, मदनगंज, अजमेर, भीलवाड़ा, मंदसौर, इंदौर, महू की छावनी, खेड़ीघाट, ओंकारनाथ, सनावत, भुसावल, जालना, नांदेड, हैदराबाद, बैजवाड़ा, मद्रास, मदुरा, रामेश्वरम धाम, श्रीरंगम, तिरुपति बालाजी, सिकंदराबाद, परभणी आसेगाँव, इंगोली, कमरेगाँव, मालेगाँव, पीपल्या, मगरदा, रोलगाँव, खण्डवा, उज्जैन, रतलाम, अजमेर - अरड़का से श्रीनिम्बार्काचार्य पीठ तक लगभग छः माह में पूर्ण हुई थी । स्व - सम्प्रदाय की सर्वतोमुखी समुन्नति के लिए आपके विभिन्न महत्वपूर्ण कार्य सम्प्रदाय के इतिहास में चिरस्मरणीय रहेंगे ।
विक्रम संवत् १९९४ में आपश्री के कर कमलों द्वारा श्रीसर्वेश्वर संस्कृत महाविद्यालय की संस्थापना हुई थी ।
      इस प्रकार आचार्यवर्य ने ८३ वर्ष पर्यन्त इस धरातल को सुशोभित किया और श्रीनिम्बार्काचार्य पीठ को ३६ वर्ष तक अलंकृत कर विक्रम संवत २००० के जयेष्ठ कृष्णा प्रतिपदा को एहिक लीला संवरण कर श्रीसर्वेश्वर - - - राधामाधव प्रभु के नित्य दिव्य चिन्मय धाम में प्रवेश किया । चरणपादुका आचार्य पीठ के सुरम्य उद्यान ( बगीची ) में सम्पूजित है । आपका पाटोत्सव चैत्र कृष्ण १२ ( द्वादशी ) को मनाया जाता है ।।
                     !! जय रधमाधव !!


[ हर क्षण जपते रहिये ]

राधेकृष्ण राधेकृष्ण कृष्ण कृष्ण राधे राधे | राधेश्याम राधेश्याम श्याम श्याम राधे राधे ||


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