४५) श्री गोपेश्वर शरण देवाचार्य श्री श्रीजी महाराज का जीवन चरित्र

श्री गोपेश्वर शरण देवाचार्य श्री श्रीजी महाराज का जीवन चरित्र || Biography of Shri Gopeshwer Sharan Devachary Shri ShriJi Maharaj


श्री गोपेश्वर शरण देवाचार्य श्री श्रीजी महाराज का जीवन चरित्र || Biography of Shri Gopeshwer Sharan Devachary Shri ShriJi Maharaj

( विलासा मंजरी सखी के अवतार )

सर्वेश्वरार्चना - - रुढं शान्तं वैभव - निस्पृहम् ।
श्रीमद् गोपीश्वराचार्य त्यागमूर्ति गुरुं नमः ।।

      धर्मनिष्ठ, त्याग तपोमूर्ति, परम निस्पृही, महान यशस्वी आचार्यपाद श्रीगोपीश्वरशरणदेवाचार्य श्री "श्रीजी" महाराज का जन्म जयपुर मण्डलान्तर्गत हस्तेड़ा नामक ग्राम में गौड़ ब्राह्मण वंश में हुआ था । आप निम्बार्काचार्य पीठ परम्परा में श्रीहंस भगवान् से ४५ वीं संख्या में विद्यमान है । आपश्री विक्रम सम्वत् १९०० से लेकर विक्रम सम्वत् १९२८ तक आचार्यपीठासीन रहे । आपने अपने धर्म पर आए हुए विपरीत वातावरण को देखकर जयपुर की लाखों रुपए की संपत्ति का तृणवत् परित्याग कर दिया था ।
       आपके समय जयपुर के राज्य सिंहासन पर महाराजा सवाई श्रीरामसिंहजी आसीन थे । कुछ समय तक दोनों ओर सभी मर्यादाओं का पूर्ववत् पालन होता रहा । दैव - योग से बक्शीराम नामक एक व्यास ( श्री "श्रीजी" महाराज के अधिकारी श्रीसाधुरामजी का चरवादार ) महाराज श्री रामसिंहजी की सेवा में रख दिया गया । उसके द्वारा कुछ अवैष्णव तांत्रिकों ने अपने जादू से महाराजा रामसिंहजी को प्रभावित करना प्रारंभ किया। थोड़े ही समय में नरेन्द्र की भावना बदली और वह शैव मत के कट्टर पक्षपाती बन गए । परस्पर प्रश्नोत्तर और वाद - विवाद बढ़ने लगा । विक्रम सम्वत् १९११ के लगभग जयपुर शहर में जिधर देखें उधर यही चर्चा सुनाई देती थी ।
      महाराजा श्रीरामसिंहजी जगदीश यात्रा के अवसर पर जब वाराणसी पहुंचे तो वहां के मूर्धन्य विशिष्ट - स्मार्त और वैष्णव सभी विद्वानों ने नरेंद्र को समझाया तथा हस्ताक्षर करके वैष्णव धर्म की सर्वोत्तमता एवं वैदिकता प्रमाणित की, किंतु फिर भी नरेंद्र के विचारों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ । दस बारह वर्षों तक उनका हठ उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया । जयपुर की अधिकतर धार्मिक जनता, बहुत से राजपुरुष और समूचा रणवास नरेंद्र के दुराग्रह से खिन्न था । वैष्णवाचार्य एवं महंतो ने एकत्रित होकर अपने कर्तव्य का विचार विमर्श पूर्वक निश्चय किया - - यदि नरेंद्र दुराग्रह पूर्वक वैष्णव धर्म की अवहेलना करना नहीं छोड़ता है तो सबसे अच्छा उपाय यही होगा "कर्णोपिधाय निरयात्' इस नीति के अनुसार सभी वैष्णव जयपुर का त्याग कर दें ।
      महाराजा रामसिंहजी श्रीजी मन्दिर में नित्य दर्शनों के लिए आया करते थे । दर्शन नमनादि के अनन्तर वे आचार्यश्री की सन्निधि में बैठकर वार्तालाप भी किया करते थे । एक दिन स्वयं प्रसंग चलाकर आचार्यश्री से प्रार्थना की - - आप भस्म और रुद्राक्ष धारण न करें तो कोई बात नहीं, केवल हमारा आपसे यही अनुरोध है कि - - जब आपकी सेवा में रुद्राक्षादि भेजे जाए तब उन्हें आप अपने कर - कमलों में ले लेवें और अपने यहां रख लेवें, जिससे हमारा राजहठ कृतार्थ हो जाए । चाहे श्रीअंग में धारण करावें । केवल स्पर्श ही कर लें । बस इतनी ही प्रार्थना है ।
        आचार्यश्री ने नरेन्द्र को समझाते हुए कहा - - राजन् ! रुद्राक्ष और भस्म कोई ऐसी अमेध्य वस्तु नहीं है, जिसका हम स्पर्श भी ना कर सकते हो । वस्तुतः भूत - भावन भगवान शंकर की आराधना में वह भी परमोपयोगी पुनीत ही है । जिस - जिस देव की आराधना में जिन - जिन वस्तुओं के उपयोग करने का शास्त्र में विधान मिलता है, उन वस्तुओं का उन्हीं देवों की आराधना में उपयोग करना उचित है । रुपान्तर से इस विषय को ऐसे समझाना चाहिए, जैसे - दूध और नमक दोनों वस्तुयें परमोपयोगी और मेध्य वस्तु है, किंतु इन दोनों का मिश्रण करके उपयोग में लिया जाए तो वह मिथ्या आहार-विहार की गणना में आता है और उसका परिणाम विपरीत हो जाता है, यहाँ तक कि भयंकर व्याधि तक का स्वरूप बन जाता है । मिथ्या आहार - विहार के परिणामों की आयुर्वेद से जानकारी कर लेनी चाहिए । भगवान श्रीविष्णु ( श्रीराम - कृष्ण ) की आराधना में तुलसी ही का उपयोग होता है, रुद्राक्ष का उपयोग नहीं होता । अतः आपको अपने राजहठ के इतने दूराग्रह पर आरुढ़ नहीं रहना चाहिए । आपका यह राजहठ अनुचित है, किन्तु हमारा धर्म हठ शास्त्र सम्मत होने पर उचित है । यदि हम उससे विपरीत होकर आपके दुराग्रह की रक्षा करें तो शास्त्र विरुद्ध होगा, साथ ही समस्त वैष्णव समाज ने आज हमें कर्णधार के रुप में मान रखा है । और हम उनसे वचनबद्ध हो रहे हैं, ऐसी स्थिति में हम कर्तव्यपालन ना करेंगे तो चारों ओर से ही अपकीर्ति सुनाई देगी, अमुक सम्प्रदायाचार्य ने आजीविका के प्रलोभन में धर्म विमुख होकर समाज को धोखा दिया । आपका राजहठ यदि पूर्ण नहीं होता है तो आपकी अपकीर्ति ना होकर चारों ओर सुयश बढ़ जाएगा । जयपुर नरेश महान् धार्मिक हैं, जिन्होंने हठ छोड़कर वैष्णव धर्म की महत्ता को समझा ।
      राजन ! आप यह समझो कि, आपकी दी हुई जीविका पर ही हम निर्भर है, अपितु चारों दिशायें हमारी जागीर है, दुनिया में जो कुछ वैभव है, "श्रीसर्वेश्वर-प्रभु-का-ही-है" ये हमारे इष्टदेव जहाँ विराजेंगे, वहाँ ही सब प्रकार से आनन्द - - मंगल रहेगा ।
      महाराजा श्रीरामसिंहजी निरुत्तर होकर अपने राजमहल में चले गए । इसी राजहठ के प्रसंग को लेकर वैष्णव चतु: सम्प्रदाय एवं शैव - शाक्तों में छह मास पर्यन्त शास्त्रार्थ चला । शैवों की ओर से ६४ प्रश्न उपस्थित किए गए जिनका समाधान वैष्णवों की ओर से हुआ । इस शास्त्रार्थ में श्रीगोपीेश्वरशरणदेवाचार्यजी महाराज के परम् कृपापात्र शिष्य विद्वेद्वेरेण्य श्रीनारायणशरणजी ने सर्वाधिक भाग लिया जो आगे चलकर युवराजकाल में ही गोलोकवासी हो चुके थे । इस शास्त्रार्थ में वैष्णवों की विजय हुई । तथापि महाराजा श्रीरामसिंहजी ने अपना राजहठ यथावत् बनाये रखा । प्रस्तुत संस्कृत में ६४ प्रश्न अद्यावधि आचार्यपीठ ( सलेमाबाद ) में, रैवासा स्थान जो श्रीरामनन्दीय अग्रदेवपीठ है वहां पर एवं पोथीखाना ( जयपुर ) में भी विद्यमान है । उसके चित्त में निरंतर इसी विषय की चिंता बनी रहती थी ।
      विक्रम सम्वत १९२१ वैशाख शुक्ल १५ को श्रीगोपीश्वरदेवाचार्यजी महाराज ने नरेश को सूचना दिए बिना ही श्रीनिम्बार्काचार्यपीठ निंबार्कतीर्थ ( सलेमाबाद ) के लिए प्रस्थान कर दिया । जब ४- ५ मील इधर सवारी आई, तब जयपुर नरेश को ज्ञात हुआ । सुना जाता है, उसी क्षण महाराजा श्रीरामसिंहजी घोड़े पर सवार होकर आचार्यश्री को लौटा कर ले आने के लिए एकाकी चल दिए । पीछे से और घुड़सवार आ गए । नरेश के नेत्रों में अश्रु धारा बह रही थी । ४-५ मिल चलने पर जब आचार्यचरण श्री "श्रीजी" महाराज के दर्शन न हो सके, तब साथ वालों ने यह कहकर सुनकर कि अब सवारी बहुत दूर चली गई, आचार्यचरण फिर पधारेंगे । अधिकारी, पुजारी आदि सब मंदिरों के प्रबंधक यहाँ ही है । श्री "श्रीजी" महाराज ने अभी जयपुर को एकदम नहीं छोड़ा है । महाराजा श्रीरामसिंहजी लौट आए । एक डेढ़ वर्ष बीत चुका जब आचार्यवर्य जगद्गुरु श्री "श्रीजी" महाराज लौटकर नहीं आए तब जयपुर नरेश निम्बार्कतीर्थ ( सलेमाबाद ) पहुंचे, किंतु उस समय श्री "श्रीजी" महाराज जोधपुर राज्य में पधारे हुए थे । अतः दोनों का सम्मेलन नहीं हो सका । शनै-शनै अधिकारियों को भी जयपुर से निम्बार्कतीर्थ ( सलेमाबाद ) बुला लिया गया। इस विवाद में सभी वैष्णवाचार्य एकमत थे । श्रीगोकुलचंद्रमाजी वाले श्रीगोस्वामीजी महाराज जयपुर छोड़कर कामवन पधार गए तथा श्रीमदनमोहनजी वाले श्रीगोस्वामीजी करौली । जब नरेश को यह निश्चय ज्ञात हो चुका कि श्री श्रीजी महाराज ने जयपुर का परित्याग कर दिया, तब विक्रम सम्वत् १९२४ में श्री "श्रीजी" महाराज के मंदिरों को राज्य के अधीन किया गया ।
     जयपुर राज्य की ओर से जगद्गुरु श्रीनिम्बार्काचार्य श्री "श्रीजी" महाराज को बुलाने के बहुत प्रयत्न किए गए, किंतु उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा नहीं छोड़ी । इतनी ग्लानि हो गई थी कि उनके सामने कोई व्यक्ति जयपुर का नाम भी लेता था तो वह सुनना नहीं चाहते थे । वृंदावन आदि जाने का कभी काम पड़ता भी था तो जयपुर राज्य की सीमा निकलने तक जलपान नहीं करते थे । जीवन भर इस प्रतिज्ञा का पालन किया ।
  उस समय आचार्यपीठ में श्री सर्वेश्वर प्रभु एवं आचार्यश्री की सेवा में साधु संत और कर्मचारीगण सब मिलकर तीन सौ के लगभग व्यक्ति थे । आय कम और व्यक्ति बहुत अधिक था । एक दो वर्ष अकाल भी रहा । ऐसी स्थिति में पीसांगन राव राजा साहब ने अपना राज्य श्रीसर्वेश्वर प्रभु की सेवा के लिए समर्पित कर दिया । जब श्री "श्रीजी" महाराज ने उनके अर्पित किए भेंट - पत्र ( पट्टे ) को पढ़ा तो उन्होंने पीसांगन नरेश को उनकी भक्ति भावना की प्रशंसा करते हुए समझाया । राजन ! श्रीसर्वेश्वर प्रभु के तो चारों दिशाओं में जागीर है । केवल जयपुर राज्य की जागीर छोड़ देने से उनकी सेवा में कोई विशेष बाधा नहीं पहुंचती । अपना राज्य आप ही के उपयोग में लेते रहें । आपका राज्य परिकर भी श्रीसर्वेश्वर प्रभु का ही परिवार है । उसका भरण-पोषण भी श्रीसर्वेश्वर प्रभु की सेवा ही है ।
     आचार्यश्री ने बहुत कुछ समझाया किंतु जब पीसांगन रावजी ने नहीं माना तब आचार्यश्री ने आज्ञा की, किंतु लो यह समस्त वैभव भगवत्प्रसादी रूप में हमारे द्वारा दी जा रही है । इसका संचालन करिए और केवल ₹200 युगलकिशोर श्यामसुंदर श्रीराधामाधव भगवान् की सेवा में प्रतिवर्ष भिजवाते रहें ।
पीसांगन राव जी ने गुरोराज्ञा  गरीयसी सही मानकर आचार्यश्री की आज्ञा शिरोधार्य की और जनतंत्र राज्य होने तक उसका पूर्ण पालन किया । पीसांगन नरेश की ओर से श्रीसर्वेश्वर प्रभु की जो सेवा हुई हैं । वह आदर्श वह अनुकरणीय है । इस कुल के नरेशों की भांति राज - महिलाओं की भक्ति भावना का भी जब उच्च आदर्श रहा है । श्रीअनूपकुमारीजी आदि बाइयों की कृति ( रचनाओं ) से आचार्य पीठ का साहित्य पूर्ण भरा हुआ है ।
     पंडित श्रीकिशोरदास जी बाबा एवं श्रीहंसराज जी आदि लेखक मानुभवों ने आचार्य परम्परा परिचय एवं श्रीनिम्बार्क प्रभा ग्रंथों में लिखा है कि अखिल भारतीय श्रीनिम्बार्काचार्यपीठापति श्री "श्रीजी" श्रीगोपीेश्वरशरणदेवाचार्यजी महाराज ने अपने इस महान् त्याग के द्वारा न केवल श्रीनिम्बार्क संप्रदाय का ही अपितु समस्त वैष्णव समाज का मुख उज्जवल कर दिया है ।
   आज से लगभग ५० वर्ष पूर्व जयपुर के वयोवृद्ध और विशिष्ट अन्वेषक एवं लेखक पुरोहित श्रीहरिनारायण जी द्वारा भी यह इतिवृत्त श्रीनिम्बार्काचार्य पीठ के अधिकारी पंडित श्रीवज्रवल्लभशरणजी वेदांताचार्य पंचतीर्थ को संप्राप्त हुआ था ।
      यह प्रसिद्ध है कि आपके साथ हाथी, घोड़े, रथ, पालकी और ऊंट आदि सवारियाँ और श्रीसर्वेश्वर प्रभु के दुग्धाभिषेक वाली सुरभि ( गौ ) ये सब संग चलते थे किन्तु आप इन सब को श्रीसर्वेश्वर प्रभु का वैभव समझकर श्रीसर्वेश्वरजी को गले में धारण करके और हाथी पर भगवान श्रीराधाकृष्ण की बाड्मयी मूर्ति श्रीमद्भागवत को विराजमान करके पुष्कर आदि राजस्थान के पुनीत तीर्थस्थलों में स्वयं पैदल यात्रा करते थे । श्रीआचार्य चरणों के तपोमय इस आदर्श से संपूर्ण राजस्थान के भक्तजन् अत्यंत श्रद्धा-भाजन बने हुए थे । वास्तव में महाराज मनु द्वारा निर्धारित आचार्य के लक्षणों का प्रत्यक्ष दर्शन होता था ।
     इस प्रकार विक्रम सम्वत् १९०१ से विक्रम सम्वत् १९२८ तक अनादि- वैदिक सद्धर्म का प्रचार- प्रसार करते हुए आचार्यपदारूढ़ रहकर आपने अनुकरणीय आदर्श की रक्षा कर के श्रीनित्यनिकुंजविहारी सर्वाधार श्रीराधासर्वेश्वर प्रभु की नित्य लीला में प्रवेश किया । आपकी चरणपादुकाएं श्रीनिम्बार्काचार्य पीठ में ही परिसेवित है । आपका पाटोत्सव मार्ग कृष्ण १० ( दशमी ) को मनाया जाता है ।।
                      !! जय राधामाधव !!


[ हर क्षण जपते रहिये ]

राधेकृष्ण राधेकृष्ण कृष्ण कृष्ण राधे राधे | राधेश्याम राधेश्याम श्याम श्याम राधे राधे ||


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