४१) श्री गोविंद शरण देवाचार्य श्री श्रीजी महाराज का जीवन चरित्र

श्री गोविंद शरण देवाचार्य श्री श्रीजी महाराज का जीवन चरित्र || Biography of Shri Govind Sharan Devachary Shri ShriJi Maharaj 

श्री गोविंदशरण देवाचार्य श्री श्रीजी महाराज का जीवन चरित्र || Biography of Shri Govind Sharan Devachary Ji
  
( गुणमंजरी सखी के अवतार )


          आचार्य श्रीगोविन्दशरणदेवाचार्यजी महाराज बड़े ही प्रतिभा सम्पन्न आचार्य थे । विक्रम सम्वत् १८१४ से १८४१ पर्यन्त आप श्रीनिम्बार्काचार्यपीठ पर विराजमान थे । आपने ही बंगाल के सुप्रसिद्ध कवि श्रीजयदेव के आराध्य भगवान श्रीराधामाधवजी जो कि बहुत वर्षों से व्रज - मण्डलस्थ श्रीराधाकुण्ड ( श्रीनिवासाचार्यजी की बैठक ) पर विराजमान थे । विक्रम सम्वत् १८२३ में लाकर वर्तमान श्रीनिम्बार्काचार्यपीठ, निम्बार्कतीर्थ 
( सलेमाबाद ) में प्रतिष्ठापित किया था ।  इस प्रसंग का विस्तृत विवेचन श्रीराधामाधवजी के परिचय में कर 
आये हैं ।
          श्रीनिम्बार्काचार्यपीठाधीश आचार्यचरणों की #श्रीजी संज्ञा भी आपके समय से ही प्रचलित हुई थी । पूर्ववर्ती आचार्यों के नाम राजा - महाराजाओं के यहाँ से प्राप्त पत्रों एवं पट्टों में श्रीस्वामीजी तथा श्रीमहाप्रभुजी आदि विशेषणों से ही प्रयुक्त होता आ रहा था । इस प्रसंग में एक जन - श्रुति इस प्रकार है - - 
          जब कभी राजा - महाराजाओं की महारानियां भगवान् श्रीसर्वेश्वर प्रभु के दर्शनार्थ पीठ में आती थी,  तब केवल एक पुजारी के अतिरिक्त और कोई भी वहां नहीं रहता था । और जब वे आचार्यश्री के दर्शन करने उपस्थित होती तब भी केवल आचार्यश्री ही विराजे रहते थे अन्य कोई नहीं । इसी प्रकार जब कभी आचार्यश्री आमंत्रित होकर राज्य के रनवासों में पधारते थे तब भी ऐसी ही प्रथा थी । परिचारकगण सब ड्योड़ी में ही ठहर जाते थे । रानियां एवं उनकी परिचारिकायें आचार्यश्री का अर्चन - पूजन करती थी । आचार्यश्री वहाँ पर ही उनको दीक्षा ( मन्त्रोपदेश ) देते थे । इसमें कुछ समय भी लगता था । 
      एक बार जयपुर के राज - महल में श्रीगोविन्दशरणदेवाचार्यजी महाराज आमंत्रित होकर विराजमान थे उस समय किसी विरोधी ने जयपुर नरेश को बहकाया । तब नरेश बिना ही किसी सूचना के तत्काल महल में जा पहुंचे । आचार्यश्री सिंहासन पर विराजमान थे । रानियाँ और परिचारिकायें उपदेश श्रवण कर रही थी । यह देखकर भी जब नरेश को सन्तोष नहीं हुआ तब आचार्यश्री ने उनकी मनोभावना जानकर श्रीकिशोरीजी का ध्यान किया । उसी समय नरेश क्या देखते हैं कि उसी सिंहासन पर आचार्यश्री के स्थान पर श्रीकिशोरीजी विराजमान हैं । दर्शन कर राजा कृतार्थ हो गया । अब तो नरेश अपनी करनी पर पश्चाताप करने लगे। क्षमा याचना के पश्चात उसी समय जयपुर नरेश ने आपको श्री "श्रीजी" की उपाधि से समलंकृत किया । तत्पश्चात यह श्रीजी शब्द जगद्गुरु श्रीनिम्बार्काचार्यपीठाधिपति आचार्यों के साथ उपनाम के रूप में वयवह्त होने लगा है । 
      उसी काल से लेकर जयपुर राज्य की समस्त प्रजा में परस्पर मिलने पर  नमस्कार रूप में जय श्रीजी की कहीं जाने लगी । आज भी बड़े बूढ़े लोगों में यह प्रथा प्रचलित है । यद्यपि श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय के आचार्यों में परम्परा से ही अंतरंग रूप से सखी भाव की उपासना चली आ रही है, कहीं गुप्त रूप से और कहीं प्रकट रूप से । श्रीगोविन्दशरणदेवाचार्यजी महाराज ने नरेश को प्रत्यक्ष रुपेण इस विषय का अनुभव स्वयं दर्शन देकर करा दिया । इस प्रकार आचार्यों के नाम में जो शरण पद लगा हुआ है, वह भी आपके समय से ही प्रचलित हुआ है । इनके पूर्ववर्ती आचार्यों के नामों के अन्त में देवाचार्य पद का ही प्रयोग होता था ।

  आपके समय की ही श्रीसर्वेश्वर प्रभु से सम्बन्धित एक चमत्कारपूर्ण घटना इस प्रकार है - -

          एक समय किसी भावुक भक्त ने भगवान् श्रीसर्वेश्वर प्रभु के विशिष्ट भोग समर्पण कराया, भगवान् की राजभोग आरती के अनन्तर जब सन्तों और भक्तों की विशाल पंगत बैठी और सभी भगवत् प्रसाद लेने लगे तो रसोई के भवन की छत टूटने की एक विचित्र आवाज आई और सबके देखते-देखते भवन की छत की कई पट्टियाँ भी टूटने लगी । पंगत में बैठे सभी सन्त और भक्तजन व्याकुल हो उठे । उस समय आचार्यश्री ने सांत्वना देते हुए कहा कि डरो मत इसका अभी प्रबन्ध हो जाएगा । आपने उसी समय भगवान श्रीसर्वेश्वर प्रभु का स्मरण करते हुए अपने हाथ की छड़ी को छत के स्पर्श करा कर सबसे कहा आप लोग शांतिपूर्वक भगवान का प्रसाद पा लो । आप सबके प्रसाद पा लेने पर ही भवन गिरेगा । हुआ भी वैसा ही, पंगत के उठने पर आचार्यश्री अपनी छड़ी को हटाकर वहाँ से बाहर आये कि उसी समय वह विशाल भवन पूरा का पूरा धराशाही हो गया । आचार्यचरणों द्वारा इतने बड़े विशाल भवन को गिरने से रोके जाने का चमत्कारपूर्ण दृश्य देखकर समस्त सन्त भावुक भक्तजनों को अत्यंत विस्मय हुआ और आपके अद्भुत प्रभाव से चकित हो उठे । सन्तों ने आपश्री से भवन के अकस्मात् गिरने का कारण जानना चाहा । आपश्री ने सभी का समाधान करते हुए बताया कि देखो, आज जिस भक्त द्वारा भोग समर्पित हुआ है वह अन्न पूर्ण पवित्र न होने के कारण ही यह आकस्मि घटना घटी ।
           इस प्रकार श्रीगोविन्दशरणदेवाचार्यजी महाराज के कितने ही महिमापूर्ण चरित्र मिलते हैं । आपका वृहद् वाणी ग्रन्थ भी है, जिसका कुछ भाग श्रीसर्वेश्वर मासिक पत्र वर्ष १८ के विशेषांक रुप में श्रीगोविन्दशरणदेवाचार्यजी की वाणी के नाम से प्रकाशित भी हुआ हो चुका हैं । इस ग्रन्थ की ललित पदावली का मनोरम शब्द गुम्फन बड़ा ही आकर्षण और अलंकार पूर्ण है, युगलकिशोर श्यामाश्याम की रसमयी लीलाओं का चित्रण बड़ा ही भावयुक्त और परम् सरस है, जिसके अवलोकन मात्र से ही हृदय प्रफुल्लित हो उठता है । आपकी प्रखर विद्वत्ता और सिद्धि सम्पनता सर्व विदित है । आपने अपने तपोबल से अनेक विधर्मियों को परास्त कर वैष्णवधर्म की विजय पताका फहराई । राजस्थान के अनेक राजा - महाराजा और प्रजा आपके अनुगत होकर वैष्णव धर्म में परम आस्था रखती थी । इस प्रकार श्रीआचार्यवर्य की इस महत्वपूर्ण अलौकिक घटना से सभी को दिव्य और सात्विक प्रेरणा प्राप्त होती रहेगी । भगवान श्रीसर्वेश्वर के गुणगान युक्त एक पद आपकी वाणी से उदधृत  किया जा रहा है - -

             करहु   नाथ   सर्वेश्वर   दीन   जानी   करुना ।
             कीजिये   सनाथ  मोहि  आय   परयो  सरना ।।
             मैं  अनादि  सिद्ध  दास  तुम  अनादि  स्वामी ।
             विसरत क्यों कृपा सिन्धु जानी कुटिल कामी ।।
            अपनी  दृढ़  भक्ति   साधु  संग   मोहि   दीजै ।
            लीला    गुन    रुप     नावं     रसना     पीजै ।।
            ऊँच-नीच   जोनिन  मैं   दु:ख   अपार   पायो ।
            गोविन्दसरन   दीनबन्धु   जानी  सरन   आयो ।

  इस प्रकार ऐसे प्रतापी आचार्यश्री ने २७ वर्ष तक आचार्यपीठ को सुशोभित कर विक्रम सम्वत् १८४१ के चैत्र मास में श्रीयुगलकिशोर की नित्य निुञ्जलीला में प्रवेश किया । आपकी चरण - पादुका श्रीनिम्बार्काचार्यपीठ में विद्यमान है । पाटोत्सव कार्तिक कृष्ण ८ ( अष्टमी ) को मनाया जाता है ।।
                         !! जय राधामाधव !!


[ हर क्षण जपते रहिये ]

राधेकृष्ण राधेकृष्ण कृष्ण कृष्ण राधे राधे | राधेश्याम राधेश्याम श्याम श्याम राधे राधे ||


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