google.com, pub-8916578151656686, DIRECT, f08c47fec0942fa0 ३६) श्री परशुराम देवाचार्य जी का जीवन चरित्र || Biography of Shri Parshuram Devachary Ji

३६) श्री परशुराम देवाचार्य जी का जीवन चरित्र || Biography of Shri Parshuram Devachary Ji

 श्री परशुराम देवाचार्य जी का जीवन चरित्र

श्री परशुराम देवाचार्य जी का जीवन चरित्र || Biography of Shri Parshuram Devachary Ji
( परमा सखी के अवतार )

  य:  संजहार  पदकंजममधुव्रतानां, 
  कामादिहैहयकुलं  निजबोधवाणे: ।
वन्देच  तं   परशुराममहं   द्वितीयं,
    विद्याविरागपरमं    कृपयावतीर्णम् ।।

ज्यों चन्दन को पवन निम्ब पुनि चन्दन करई ।
       बहुत   कालतम   निविड़  उदै  दीपक  ज्यों  हरई ।।
श्रीभट्ट पुनि हरिव्यास सन्त मारग अनुसरई ।
       कथा    कीरतन     नेम   रसन    हरिगुन   उचरई ।।
गोविन्द भक्ति गद रोग तिलक दाम सद वैदहद ।
      जंगली देश के लोग सब श्रीपरशुराम किये पारषद ।।
                                                         ( भक्तमाल )


       आचार्यवर्य श्रीहरिव्यादेवाचार्यजी महाराज के पश्चात आचार्य पद पर श्रीपरशुरामदेवाचार्य जी महाराज अभिषिक्त हुए । इनका समय पन्द्रवीं शताब्दी है । विक्रम संवत् १५१४ से लेकर विक्रम संवत् १६६४ पर्यन्त आप आचार्य पीठासीन रहे । ये बड़े ही प्रतिभा संपन्न उच्च कोटि के परम सिद्ध आचार्य थे । इनकी कीर्ति और महिमा सर्वत्र फैली हुई थी । इन्होनें अपने श्रीगुरुदेव के आदेश पर "पद्मपुराण" में परिवर्णित श्रीनिम्बार्कतीर्थ नामक  परम पावन मरुस्थल में पुष्कर क्षेत्र के समीप एक मस्तिंगशाह नामक यवन फकीर को परास्त कर वैष्णव धर्म का प्रचार - प्रसार किया ।
       जहाँ पर आजकल श्रीनिम्बार्काचार्य पीठ स्थित है, वह स्थान आज से ५०० वर्ष पूर्व भयंकर बीहड़ वन था ।  उस जंगल में एक प्राचीन परम मनोरम अति सुंदर जल और लता वृक्षों से समन्वित आश्रम था,  जिस आश्रम को एक पैशाचिक संपन्न दुष्ट यवन फकीर मस्तिंगशाह ने अपने आधिपत्य में कर लिया था । उस आश्रम के सन्निकट होकर ही पुष्कर एवं द्वारका धाम जाने का प्रधान मार्ग था । यह मदान्ध फकीर उस मार्ग से कोई भी धार्मिक जन यात्रा के लिए निकलता तो उन्हें बड़ा ही दुख पहुंचाया करता था ।  एक समय कुछ साधु संत महात्मा इसी मार्ग से द्वारका धाम को जा रहे थे ।  जब से फकीर के निवास स्थान के सन्निकट पहुंचे तो फकीर इन सभी को अपनी पैशाचिक सिद्धि के बल पर रोक लिया और विभिन्न प्रकार का उनके साथ दुव्र्यवहार करते हुए व्यथित किया, जिसे संतो को महान् कष्ट हुआ ।  जैसे -  तैसे उस नर पिशाच से सुरक्षित बचकर वहां से लौट पड़े और मथुरापुरी में श्रीहरिदासदेवाचार्य जी महाराज के सन्निकट पहुंचकर उस यवन फकीर द्वारा दुष्कृत्यों का संपूर्ण वृत्तान्त श्रवण कराया । श्रीचरणों को यह जानकर बड़ा जी दु:ख हुआ । आपने अपने कृपापात्र शिष्य श्रीपरशुरामदेवाचार्य जी को आदेश दिया कि तुम उस दुष्ट यवन को जाकर परास्त करो । कारण तुम्हारे में उसको परास्त करने का संपूर्ण सामथ्र्य एवं सिद्धि बल भी है ।आचार्यश्री की आज्ञा पाकर कुछ संतो को साथ लेकर श्रीपरशुरामदेव जी ने उस यवन फकीर को परास्त करने एवंं साधु - महात्माओं के धर्मप्राण जनता के दुख दूर करने और वैष्णव धर्म के प्रचार निमित्त प्रस्थान किया । सर्वप्रथम तीर्थगुरु श्रीपुष्करराज पहुंचकर स्नान किया । यह यवन यहाँ से १२ कोस की दूरी पर रहता था । एक दिन संत मंडली मंडली सहित वहाँ पहुंच गए जहां पर संत द्रोही दुष्ट फकीर था । आये हुए संतो को देखकर यवन फकीर अपनी सिद्धियों द्वारा सबको मूर्छित करना चाहा, किंतु कई बार प्रयोग करने पर भी वह सफल नहीं हो पाया । साथ ही उसके संपूर्ण देह में विद्युत प्रहार की भाँति जलन पैदा होने लगी । उस यवन के पास तीन पैशाचिक सिध्दिया थी । जिनको श्रीपरशुरामदेव जी महाराज ने क्रमश: हरण कर ली ।  जब उसने सभी प्रकार सी अपने आपको असहाय एवं असमर्थ पाया तो करुण क्रन्दन क्षमा याचना करने लगा । बहुत अनुनय विनय करने के अनन्तर श्रीचरणों में उसे क्षमा करके अन्यत्र चले जाने को कहा ।  आज्ञानुसार उसने वैसा ही किया ।  वहां से चला गया, किंतु अंतिम समय में उसने फिर वहीं आकर अपने शरीर का इस आश्रम से कुछ दूरी पर अन्त किया । जिनकी कब्र अद्यावधि श्रीनिंबार्काचार्य पीठ, निम्बार्कतीर्थ सलेमाबाद से कुछ दूरी पर दक्षिण दिशा में विद्यमान है । वह यवन पीछे परम भगवद्धक्त हो गया था ।
       श्रीपरशुरामदेवचार्य जी महाराज के द्वारका धाम के मार्ग को निष्कष्टक बनाकर इस भयंकर मरुस्थल प्रदेश में वैष्णव धर्म का प्रचार करते हुए श्रीनिंबार्क तीर्थ में कुछ दिन पर्यंत निवास कर पुन: मथुरापुरी की ओर गमन किया । श्रीहरिव्यासदेवचार्य जी महाराज ने इनके कार्यकौशल सिद्धि बल के प्रभाव को देखकर परम् प्रसन्नता पंकट की और सब प्रकार से योग्य समझकर इन्हैं अपने पद से प्रतिष्ठित करके भगवान् श्रीसर्वेश्वर प्रभु की सेवा देकर अंतिम बार यही आदेश प्रदान किया कि उसी मरुस्थल प्रदेश में जाकर वैष्णव धर्म का प्रचार प्रसार करो । श्रीपरशुरामदेवचार्य जी महाराज पुनश्च श्रीसर्वेश्वर प्रभु सेवा सहित श्रीआचार्यवर्य के आदेशानुसार मरुस्थल प्रदेश में आकर भगवद्धक्ति की गंगा बहाने लगे । ये कभी-कभी अपने निवास स्थान से पुष्कर जाकर अनेक दिवस पर्यंत नागेश्वर पर्वत की कंदराओं में निवास करते और फिर आपने आश्रम आ जाते । इन्होनें अपने निवास स्थान के लिए किसी भी प्रकार से आवाज का निर्माण नहीं किया केवल एक पीलू वृक्ष के नीचे रहकर तपश्चर्या धूनी (हवन कुंड) पर श्रीयुगल आराधना करते थे । इनका निर्मित "परशुराम सागर" नामक विशाल ग्रंथ है ।इनकी रचना दोहे, छन्द, चौपाई, वरवा, छप्पय और पद आदि अनेक छन्दों में हुई हैं । यह विशाल ग्रंथ चार भागों में प्रकाशित हुआ है ।  इसका संपादन विद्वद्वर श्रीरामप्रसाद जी शर्मा एम. ए. पी.एच. डी. पूर्व प्रवक्ता राजकीय महाविद्यालय किशनगढ़ (राजस्थान) ने किया है । यह ग्रंथ परम् उपादेय मनन करने योग्य है,छपाई सफाई चित्ताकर्षक है 
       इन श्रीआचार्य चरण में यवनों के प्रबलतम आक्रमण के समय, जबकि इन दुष्ट यवनों ने संपूर्ण भारत को अपने  आदिपत्य में कर लिया था, और हिंदू जनता को विविध प्रकार से दुखी करते थे, मंदिरों को ध्वस्त तथा देव मूर्तियों को खंडित करते थे । सर्वत्र यावनीय बर्बरता ने त्राहि - त्राहि मचावा दिया था, तब इन दुष्टों को जहां - तहां सर्व प्रकार से परास्त कर वैष्णव धर्म का प्रचार - प्रसार कर हिंदू जनता का कल्याण किया । आचार्यश्री ने जनकल्याणर्थ सदा के लिए पुष्कर क्षेत्र में ही निवास किया । कभी आप पुष्कर निवास करते तो कभी श्रीनिंबार्क तीर्थ तथा कभी अन्यान्य प्रांतों में परिभ्रमण कर सनातन धर्म का उत्थान करते ।

        श्रीपरशुरामदेवचार्य जी महाराज के अनेक चरित्र मिलते हैं जो कि श्रीसर्वेश्वर प्रभु से संबंधित पूर्ण है । उदारणार्थ एक दो चरित्र नीचे दिए जा रहे हैं - - -

       एक समय शेरशाह सूरी बादशाह अपने कोई सन्तति (पुत्र) न होने से पुत्र प्राप्ति के लिए अजमेर ख्वाजा की यात्रार्थ आया हुआ था । परंतु विविध उपायों के करने पर भी पुत्र रत्न से वंचित ही रहा । उस समय बादशाह की सेना में जोधपुर राज्यान्तर्गत खेजडला ग्राम के प्रसिद्ध ठाकुर श्रीशियोंजी भाटी सरदार सेनापति थे और इधर ये श्रीपरशुरामदेवचार्य जी महाराज के परम्परागत् शिष्य भी थे । इन्होंने एक दिन बादशाह से निवेदन किया कि आप यदि हमारे श्रीगुरुदेव से अभ्यर्थना करें तो अभिलाषा पूर्ति हो । यहां अजमेर से दस कोस की दूरी पर ही वे एकांत जंगल में तपश्या करते है ।उनकी यदि अनुकंपा हो जाए तो नि:संदेह पुत्र प्राप्ति हो सकती है । बादशाह ने सहर्ष स्वीकार किया, और शीध्र ही आकर आचार्यश्री के दर्शन किए । बादशाह ने प्रणाम करते समय एक बहुमूल्य परिधान वस्त्र (दुशाला) समर्पित किया जिसे आचार्य - चरण ने उस बहुमूल्य वस्त्र को चिमटा से पकड़कर प्रज्वलित धूनी में प्रवेश कर दिया । बादशाह का वस्त्र जब जलकर भस्म होता दिखाई दिया तो उसके मन में नाना भाँति की कुतर्क भावनाएं उठने लगी तब आचार्यश्री ने इनकी मानसिक भावना जानकर प्रज्वलित धूनी में से उसी प्रकार के सैकड़ों दुशाले चिमटा से निकाल - निकाल बाहर एकत्रित कर दिए, और बादशाह से कहा कि तू दु:खी मत हो तेरा इसमें से जो वस्त्र हो उसे उठा ले जा । हमारा तो यही खजाना है । आता है तो इसमें रख देते हैं । बादशाह ने जब यह अलौकिक विचित्र चमत्कार देखा तो उसके आश्चर्य का पारावार नहीं रहा और अपने कुत्सित विचारों पर पश्चाताप करता हुआ श्रीचरणों में क्षमा प्रार्थना करने लगा । आचार्यपाद ने विनय करने पर उसे क्षमा प्रधान की ।  तदनन्तर बादशाह ने पुत्र प्राप्ति के लिए आपसे प्रार्थना की । आपने कहा पुत्र प्रदाता तो भगवान श्रीसर्वेश्वर प्रभु ही है, जाओ । तब भाटी सरदार श्रीसियो जी ने इशारा किया कि चलिए । नमन करके बादशाह अपनी अभीष्ट सिद्धि को प्राप्त कर पुन: अपने स्थान पर चला गया । जब उसके पुत्र हो गया था उसका नाम रखा सलीमशाह । फिर श्रीआचार्य चरणों की सन्निधि में  आकर सेवा के लिए प्रार्थना करने लगा । आपने बहुत प्रकार से प्रार्थना करने पर भी कुछ अड़गीकार नहीं किया । बादशाह यह नहीं जानता था कि इनके समक्ष मेरा वैभव तुच्छातितुच्छ तृण सदृश भी नहीं है । अंत में उसने एक नगर निर्माण के लिए प्रार्थना कि और कहा कि उस नगर का नाम मेरे पुत्र के नाम से विख्यात हो । विविध भाँति से प्रार्थना करने पर आपने इसे स्वीकार कर लिया । बादशाह जब जाने लगा तो गायों के चरने के लिए ६ हजार बीघा जमीन समर्पित की । बादशाह के पुत्र के नाम पर उस स्थान का नाम सलेमाबाद पड़ा, यद्यपि इसका पौराणिक श्रीनिंबार्कतीर्थ ही प्रसिद्ध है ।

        अभी भी आपके समय - समय पर प्रत्यक्ष रुप से भक्तजनों को दर्शन होते रहते हैं । उसी समय से आप के भजन स्थान पर अब भी वह स्थान जिसको धूनी कहते हैं वहां श्रीस्वामी जी महाराज एवं धूनी का नित्य अर्चन पूजन होता है । वह स्थान परम् मनोहर एवं दर्शनीय हैं । वर्तमान आचार्यश्री ने इसको और भी चिताकर्षण बनवा दिया है जहां के दर्शन कर दर्शकों का चित अत्यंत भाव विभोर हो जाता है । धूनी की विभूति लेकर अनेक भक्तजन अपने कष्टों की निवृत्ति तथा मनवांछित फल प्राप्त करते हैं । आपके अनेकों ही अलौकिक विलक्षण चमत्कार हैं ।  उनके संबंध में कहाँ तक लिखा जाए । 

केवल एक दो घटनाओं का वृतान्त नीचे दिया जा रहा है ।

(१) एक एक बार एक भगवतत्त्व जिज्ञासु ब्राह्मणकुमार घर बार छोड़ कर एक ज्ञान मार्गी गुरु की शरण में पहुंचा और बहुत वर्षों तक ज्ञान प्राप्त करता रहा, किंतु आत्म तृष्टि न होने के कारण आचार्यवय्र्य श्रीपरशुरामदेवचार्य जी महाराज की चरण - शरण ली । तब आपने भी उसको पञ्च संस्कार युक्त वैष्णवी शिक्षा देकर भगवतत्तत्व का सदुपदेश दिया । इस ज्ञान को पाकर उसे परम शांति की प्राप्ति हुई । आपकी सत्कृपा ने कालांतर में जाकर उस ब्राहमण को एक उच्च कोटि का संत बना दिया । आगे चलकर वही महात्मा श्रीतत्त्ववेत्ताचार्य जी के नाम से विख्यात हुए ।
        एक दिन आपने उसको सब प्रकार से योग्य जानकर यह आज्ञा दी कि तुम इस मारवाड़ प्रदेश में ही भ्रमण कर वैष्णव धर्म का प्रचार - प्रसार करो ।  आपकी आज्ञा पाकर वे भी धर्म प्रचारार्थ भ्रमण करते हुए एक दिन, पूर्व शिक्षा गुरु के आश्रम में जा पहुंचे । उन्होंने इनको इस प्रकार वैष्णवी चिन्हों से चिन्हित देखकर कहा कि यह क्या किया ? तब उसने भी अपने मन की समस्त अभिप्राय प्रकट किया और कहा कि वास्तविक आत्म शांति वैष्णव भक्ति मार्ग में ही है ।
       उनका अभिप्राय सुनकर उन शिक्षा गुरु ने उनको एक जल से पूर्ण कुंभ ( जल से भरा हुआ घड़ा ) देकर कहा कि जाओ अपने गुरु के पास इसको बिना कहे सुने ही उनकी समक्ष धर देना । इन्होंने वैसा ही किया । उस गुरु का अभिप्राय था कि मैंने इसको पहले से ही पूर्ण बना दिया आपने इसमें क्या विशेषता की ?  श्रीचरणों ने भी उसके अभिप्राय को जानकर शेर भर बतासे मंगवाए और श्रीसर्वेश्वर प्रभु का नाम स्मरण करते हुए शनै: शनै: क्रमश: एक एक करके छोड़ दिये । सब बतासे पानी में घुल मिल गये तब महाराजश्री ने उन्हीं के द्वारा उस घड़े को वहां भेज दिया और यह कह दिया कि तुम भी उनसे कुछ ना कहना । केवल जाकर उनके सामने रख देना । उन्होंने वैसा ही किया । "आपका अभिप्राय भी यही था कि आपने इसको पूर्ण बना दिया किंतु रस नहीं था हमने इस में मधुरता प्रकट कर दी ।"  इस भाव को जानकार ये महात्मा बड़े प्रसन्न हुए । वे ही तत्व जिज्ञासु परम मेधावी ब्राह्मण आचार्यश्री के आश्रम में आकर पहले की भाति निवास करने लगे । एक दिन आपने कहा कि तुमने भगवत्तत्त्व को जान लिया है, अत: आज से तुम्हारा नाम संसार में तत्त्ववेता के नाम से ही प्रसिद्ध होगा ।
         
(२) एक बार एक संत आपके यहाँ छत्र, चँवर, हाथी, घोड़े, रथ, पालकी और सोने चांदी के पात्र आदि देखकर कहा कि आप तो प्र्पंच (माया) से घिरे हुए हैं । महात्मा का ऐसा स्वरुप क्यों ? 
        तब उससे आपने विनम्र शब्दों में कहा कि भाई ! क्या करें हमने तो माया को सर्वथा त्याग दिया है, किंतु यह नटनी ऐसी है कि हमारे पीछे - पीछे चली आती है ।
       उसने कहा कि यह कैसा जाना जाय । इसकी तो परीक्षा हो अभी यथार्थता का ज्ञान हो ।  यह बात सुनकर आप उसी समय समस्त वैभव को छोड़कर श्रीसर्वेश्वर प्रभु की सेवा तथा एक दो शिष्यों को साथ लेकर पुष्करस्थ नाग पहाड़ की कन्दरा में जाकर निवास करने लगे ।
       आपको वहां गए एक हफ्ता भी नहीं हो पाया था कि एक दिन प्रात:काल श्रीसर्वेश्वर प्रभु कि सिंगार आरती हो रही थी तब उधर से एक बडा व्यापारी (लक्खी बंजारा) धन संपत्ति से युक्त अपने परिजन के साथ निकला । वह परम वैष्णव था । उसका यह नियम था कि जहां कहीं भी हो भगवान के दर्शन कर कर भोजन पाना ।  उसने झालर - घण्टे की आवाज़ सुनी और कहा कि देखो यहां भगवान का मंदिर है, चलो दर्शन कर आवें और भोजन पा ले, फिर चलेंगे ऐसा कह कर वहां ही पड़ाव डाल दिया ।
      जब वह दर्शन करने के लिए पहुंचा तो भगवान श्रीसर्वेश्वर और साथ ही अपने गुरुदेव ( श्रीपरशुरामदेवाचार्य जी महाराज ) के दर्शन कर परम प्रसन्न हुआ उसके हर्ष का ठिकाना ना रहा । उसने कहा कि आज मेरे अहोभाग्य है जो भगवान श्रीसर्वेश्वर और पूज्य गुरुदेव के दर्शन हुए । उसने अपनी संपत्ति में से बहुत संपत्ति भगवान् और श्रीगुरुदेव के भेंट कर दी तथा उस दिन का भोग प्रसाद ( थाल ) भी अपनी ओर से ही करवाया । विपुल मात्रा में वैष्णव सेवा हो रही थी कि उसी समय वह परीक्षार्थी संत भी जो की परीक्षा हेतु साथ ही रह रहे थे, उन्होनें वहां की भाँति यहां भी पूर्ण वैभव देखा तो अपने मन में बहुत लज्जित हुए और आज श्रीआचार्य चरणों में गिर कर अपने वचनों को वापस लेते हुए क्षमा मांगी! सच है भगवान् के जो सच्चे भक्त हैं माया उनके पीछे-पीछे दासी की भांति स्वयं दौड़ा करती है ।
       विश्वविख्यात परम भक्तिमति श्रीमीराबाई ने आपश्री से ही मंत्रोंपदेश एवं श्रीगिरधरगोपाल की प्रतिमा प्राप्त की थी । सम्प्रति श्रीमीराबाई के वही भगवविग्रह श्रीगिरिधरगोपाल जी श्रीपुष्कर में श्रीपरशुरामद्वारा स्थान में अद्यावधि सुशोभित है ।
       इनका जयंती महोत्सव भाद्रपद कृष्णा ५ ( पंचमी ) का है । यह उत्सव श्री निंबार्काचार्य पीठ, निम्बार्कतीर्थ  बड़े समारोह के साथ मनाया जाता है । अन्यंत्र वृंदावन, जयपुर आदि अनेक स्थलों पर भी यह उत्सव बहुत सुंदर रुप से संपन्न होता है । निम्बार्कतीर्थ में इस जयंती महोत्सव के दिवस को समस्त जनसमुदाय श्रीस्वामी जी की पंचमी अथवा गुरुपंचमी के नाम से बोलते हैं ।
                            !! जय राधामाधव !! 


[ हर क्षण जपते रहिये ]

राधेकृष्ण राधेकृष्ण कृष्ण कृष्ण राधे राधे | राधेश्याम राधेश्याम श्याम श्याम राधे राधे ||


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