श्री हरिव्यास देवाचार्य जी का जीवन चरित्र
( हरिप्रिया सखी के अवतार )
आप इस परम्परा में 35 वीं संख्या में आचार्य पीठासीन थे। आपके भी संस्कृत एवं व्रजभाषा में विरचित अनेक ग्रन्थ है। उनमें संस्कृत में "सिद्धान्त रत्नाञ्जली" परम् प्रसिद्ध हैं। यह ग्रन्थ श्रीभगवन्निम्बार्क कृत वेदान्त कामधेनु दशश्लोकी के व्याख्यारुप में है । व्रजभाषा में "महावाणी" प्रधान ग्रन्थ हैं। यह रस ग्रन्थों में सर्वोत्कृष्ट माना जाता हैं। यह महावाणी श्रीभट्टदेवाचार्यजी कृत श्रीयुगलशतक का मानों वृहद् भाष्य ही हैं। श्रीहरिव्यासदेवाचार्यजी महाराज विशेेषत: मथुरापुरी नारद टीला पर निवास किया करते थे। अधिक समय तो आप लोक कल्याण भ्रमण में ही रहा करते थे! भ्रमण काल में वैष्णव धर्म का आपने सर्वाधिक प्रचार-प्रसार किया। सर्वत्र वैष्णव धर्म की विजय वैजयन्ती फहराई।
श्रीसर्वेश्वर प्रभु की राजभोग सेवा के पश्चात् स्थान पर या भ्रमणकाल में सर्वत्र वैष्णव सेवा भी मुख्यतया आपके यहॉं वृहद् रूप से हुआ करती थी। शरणागत जनों को जहाँ -तहाँ पञ्च संस्कार पूर्वक वैष्णवी दीक्षा देकर परमार्थ की ओर अग्रसर करते हुए भगवद्भक्ति का प्रचार करना ही आपका लक्ष्य था।
शिष्य परम्परा
श्रीरसिकराजेश्वर महावाणीकार नित्यनिकुंजेश्वर युगलकिशोर श्रीश्यामाश्याम की नित्य विहारमयी लीलाओं के उज्ज्वल रसोपासक प्रबल प्रतापी परम यशस्वी ख्यातनामा अनन्त श्रीविभूषित जगदगुरु निम्बार्काचार्य रसिक- राजराजेश्वर श्रीहरिव्यासदेवाचार्यजी महाराज के मुख्यतया १२.५ साढें बारह शिष्य थे। जिनमें आधे में श्रीवैष्णवी देवी सम्मिलित थी। इनमें आचार्य गद्दी आचार्यश्री के शिष्य परिकर में अपने कृपापात्र श्रीपरशुरामदेवाचार्यजी महाराज को ही अभिषिक्त किया। साथ ही अपनी निजी सेवा, पूवाचार्यों द्वारा परम्परागत श्रीसनकादि संसेव्य शालिग्राम विग्रह स्वरूप ठाकुर श्रीसर्वेश्वर प्रभु (आराध्यदेव) की सेवा भी प्रदान की।
तत्पश्चात् अन्य शिष्यों ने भी अपने प्रखर वैदुष्य दिव्य प्रतिभा तथा त्याग तपस्या द्वारा भक्ति का प्रचार-प्रसार करते हुए जहाँ-तहाँं मठ, मन्दिरों की संस्थापना की जो कि उनकी "द्वारा गादी" के नाम से प्रसिद्ध है। वे भी बड़े-बड़े विशाल मठ, मन्दिर अति दर्शनीय हैं। इस प्रकार श्रीहरिव्यासदेवाचार्यजी महाराज एवं उनके शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा भारत में सर्वत्र भावपूर्ण वैष्णव धर्म का बहुत सुन्दर प्रचार-प्रसार हुआ।
आचार्यवर्य हरिव्यासदेवाचार्यजी महाराज के साढ़ें बारह शिष्यों का नामोल्लेख अनन्त श्रीविभूषित जगद्गुरु निम्बार्काचार्य श्रीनारायणदेवाचार्यजी महाराज ने स्वनिर्मित "श्रीआचार्य चरितम्" नामक ग्रन्थ के १४ वें विश्राम के अन्त में के श्लोक संख्या ४३ के अन्तर्गत किया हैं ।
आपसे भी पूर्व स्वामी श्रीरुपरसिकदेव जी महाराज ने अपने स्वरचित "श्रीहरिव्याययशामृत" ग्रन्थ में भी साढें बारह शिष्यों का उल्लेख किया हैं। उक्त ग्रन्थ में श्रीपरशुरामदेवाचार्य जी महाराज को ही अखिल भारतीय निम्बार्काचार्य पीठ पर श्रीसनकादि संसेव्य श्रीसर्वेश्वर प्रभु सेवा सहित समासीन होने का स्पष्ट भाव वर्णित किया हुआ हैं । आचार्यप्रवर श्रीहरिव्यासदेवाचार्य महाराज ने श्रीपरशुरामदेवाचार्यजी को ही श्रीनिम्बार्काचार्य पीठ के आचार्य पद पर सुशोभित किया जिसके अति प्राचीन अर्वाचीन अनेकानेक प्रमाण विधमान हैं ।
श्रीपरशुरामदेवाचार्यजी महाराज के अतिरिक्त आपके साढे एकादश गुरु भ्राताओं इस प्रकार हैं--
श्रीमत्स्वभूदेवाचार्यजी, श्रीवोहितदेवाचार्यजी, श्रीउद्धवदेावाचार्यजी, श्रीगोपालदेवाचार्य, श्रीमदनगोपालदेवाचार्य ( घमण्ड ) श्रीबाहुबलदेवाचार्य, श्रीमोहितदेवाचार्य, श्रीकेशवदेवाचार्य, श्रीमाधवदेवाचार्य, श्रीहृषीकेशदेवाचार्य, श्री ( लापर ) गोपालदेवाचार्य और श्रीमुकुन्ददेवाचार्य इनके अलावा महाराज की परम शिष्या श्रीहरि भक्तिपरायण श्रीचण्डिका (श्रीदेवीजी) भी थी।
"यह देवी आजकल कश्मीर जम्बू के सन्निकट "वैष्णवी देवी" के नाम से प्रसिद्ध है।" जहॉं पर जीव-हिंसात्मक बलि न होकर सात्त्विक मिष्ठान्न - फलादि भोग ही लगाया जाता हैं।
इसी प्रकार रसिकराजराजेश्वर जगद्गुरु निम्बार्काचार्य स्वामी श्रीहरिव्यासदेवाचार्यजी महाराज की ख्याति देश में सर्वत्र हो गई थी। आज भी सम्प्रदाय के लोग एवं सन्तजन जहाँ-तहाँ आपका हरिव्यासी के नाम से कहा करते हैं। आपका पाटोत्सव कार्तिक कृष्णा द्वादशी को मनाया जाता हैं।
सखी-भाव की उपासना में आप ‘‘श्रीहरिप्रिया‘‘ सहचरी के नाम से प्रसिद्ध है। आपके द्वारा रचित "श्रीमहावाणी" के पदों में "श्रीहरिप्रिया" शब्द का ही प्रयोग किया गया है। श्रीमहावाणी श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय की अमूल्य निधि हैं। इसमें आपने श्रीप्रिया-प्रियतम को नित्यनिकुंजोपासना में सखी भाव को ही मान्यता प्रदान की है, जैसे--
"प्रात: कालहि ऊठिके, धार सखी को भाव।
जाय मिले निज रूप में, याकौ यहै उपाव।।"
!! जय राधामाधव !!
[ हर क्षण जपते रहिये ]
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