श्री श्रीभट्टाचार्य जी का जीवन चरित्र
( हितू सखी के अवतार )
वृन्दावने वेणुलटे सुरम्ये स्वाङे स्थितो नित्यनिकुञ्जनाथौ।
आराधयन्तं हृदि भावमद्भं श्रीभट्टदेवं शरणं प्रपधे ।।
मधुर भाव संमिलित, ललित लीला सुवलित छवि ।
निरखत हरषत हृदै, प्रेम वरषत सुकलित कवि ।।
भव निस्तारन हेतु, देत छढ भक्ति सबनि नित ।
जासु सुजस ससि उदै, हरत अतितम भ्रम श्रम चित ।।
आनंदकंद श्रीनंदसुत, श्रीवृषभानुसुता भजन ।
श्रीभट्ट सुभट्ट प्रगटयो अघट, रस रसिकन मन मोद घन ।।
आपका आविर्भाव गौड़ ब्राह्मण कुल में हुआ था। आपके पूज्य माता-पिता मथुरापुरी ध्रुव टीला पर निवास करते थे। आचार्य-परम्परा में श्रीहंस भगवान् से आपश्री 34 वीं संख्या में विद्यमान थे। प्रस्थानत्रयी भाष्यकार जगद्विजयी श्रीकेशवकाश्मीरि जी जैसे श्रीगुरुदेव तथा महावाणीकार रसिकराजराजेश्वर श्रीहरिव्यासदेवाचार्यजी महाराज जैसे शिष्य आपकी दिव्य गरिमा के द्योतक हैं। इसमें आपके प्रखर वैदुष्य तथा दिव्य तप का सहज ही पता लग जाता है। संस्कृत एवं हिन्दी दोनों भाषाओं पर आपका पूर्ण अधिकार था। आपके द्वारा अनेक ग्रन्थ हैं, जिनमें भाषा ग्रन्थ "श्रीयुगलशतक" का रसिकजन समाज तथा भक्त समाज में विशेष प्रचार है। यह ग्रन्थ व्रजभाषा की "आदिवाणी" नाम से कहा जाता हैं। व्रजभाषा में सर्वप्रथम इसी ग्रन्थ का निर्माण हुआ था। इस ग्रन्थ में श्रीप्रिया-प्रियतम की नित्य:निकुंज लीलाविहार की सुललित रसमयी लीलाओं से सुसम्पन्न सौ पद है। अष्टयाम सेवा और वर्षभर के सभी उत्सवादिकों का अत्यन्त मनोहर रसमय वर्णन है। एक समय श्रीभट्टदेवाचार्यजी ने "भीजत कब देखौ इन नैना" इत्यादि पद से युगल सरकार का ध्यान किया। ध्यान करते ही तत्काल श्रीप्रभु ने अभिलाषानुसार की दर्शन देकर इनकी गोद में विराजमान रहा करते थे तथा विविध प्रकार की इनके साथ क्रीड़ा किया करते थे। श्रीधामवृन्दावन में आपकी अगाध निष्ठा थी। वे अपने आपको तथा आराध्य देव भगवान् श्रीराधाकृष्ण को श्रीवृन्दावन से बाहर देखने की बात नहीं करते थे। उन्होंने एक पद में यही बताया हैं कि - -
रे मन! वृन्दाविपिन निहार ।
यधपि मिले कोटि चिन्तामनि तदपि न हाथ पसार ।।
विपिन राज सीमा के बहार हरि हूं को न निहार ।
जय श्रीभट्ट धूरि धूसर तनु यह आशा उर धार ।।
‘‘धाम निष्ठा की भॅंति वे अपने आराध्यदेव की अनन्य निष्ठा के सम्बन्ध में भी कह रहे हैं कि - -
सेव्य हमारे हैं सदा, वृन्दाविपिन विलास ।
नंद नंदन वृषभानुजा, चरण अनन्य उपास ।।
आपका स्थितिकाल 13 वीं शताब्दी का अन्त और 14 वीं शताब्दी का प्रारम्भकाल था। आपने अपने "श्रीयुगलशतक" के अंतिम एक दोहे में बताया है कि - -
नयन बाण पुनि राम शशि, गनौं अङक गति वाम ।
प्रगट भयो श्रीयुगलशतक, यह संवत अभिराम ।।
इस प्रकार इस ग्रन्थरत्न का रचना काल वि0 सं0 1352 बताया जाता है । इनका पाटोत्सव आश्विन शुक्ल द्वितीया को मनाया जाता है।
!! जय राधामाधव !!
[ हर क्षण जपते रहिये ]
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