!! श्रीनिम्बार्काचार्य जी का चरित्र !!
सर्वस्य विज्ञानमतो यथार्थकम्, श्रुतिस्मृतिभ्यो निखिलस्य वस्तुनः..
( वेदान्त दस श्लोकी )
भाग-11
( साधकों ! शाश्वत अपनी एक घटना का उल्लेख करता है...
"तुमने किस सम्प्रदाय में दीक्षा ली है ?
वो एक महात्मा थे... श्रीधाम वृन्दावन के महात्मा... उन्होंने मुझे अपने पास बुलवाया था... जब गया तो पहला प्रश्न उन्होंने मुझ से यही किया... तुमने किस सम्प्रदाय में दीक्षा ली है ?
मेरे गले में तुलसी की माला थी...माथे में मात्र बृज रज का टीका था... जो मैं लगता हूँ ।
मैंने कहा... मैं किसी सम्प्रदाय में नही गया...
बिना सम्प्रदाय में गए... भगवत्प्राप्ति हो ही नही सकती ।
सीधे बोल दिया था उन्होंने... मानो भगवत्प्राप्ति का ठेका वही लेकर बैठे थे... और साथ में कुछ श्लोक भी सुना दिए... ।
मैंने कहा...रामकृष्ण देव किसी सम्प्रदाय के नही थे...
और रही वैष्णव दर्शन की बात... तो श्रीराधा बाबा ( गोरखपुर) भी किसी वैष्णव सम्प्रदाय में दीक्षित नही थे... तो क्या आप ये कह सकते हैं कि इन लोगों को भगवत्प्राप्ति नही हुयी ?
शाश्वत लिखता है...मुझे और श्लोक सुनाने लगे वो महात्मा...पद्मपुराण इत्यादि के... तो मैंने कहा... शास्त्रों में अर्थवाद (किसी बात को बढ़ा चढ़ा कर पेश करना) भी है ।
वो मुझ से नाराज हो गए... तो मैंने उनसे पूछा... आप सम्प्रदाय में दीक्षित हैं... क्या भगवत्प्राप्ति आपको हो गयी ?
शाश्वत निडरता से लिखता है... मात्र सम्प्रदाय में दीक्षित होने से नही होता... साधना स्वयं करनी पड़ती है... सतत भगवत्स्मरण बना रहे... और सहज बना रहे... ये आवश्यक है... ।
और ये हो गया... तो भगवत्प्राप्ति हो ही जायेगी ।
वो और नाराज होते जा रहे थे... शाश्वत लिखता हैं... मैंने उनसे कहा... दो लड्डू ज्यादा खा लेना... अगर मुझ पर गुस्सा आरहा है तो... मैं जा रहा हूँ... और मैं निकल गया ।
शाश्वत आगे लिखता है... सभी सम्प्रदाय सही हैं...पर ये कहना कि सम्प्रदाय में ही जाना चाहिए... या इसी सम्प्रदाय में गए बिना भगवत्प्राप्ति नही होगी... ये गलत बात है ।
शाश्वत लिखता है... आप जहाँ हैं... वहीं रहिये... निष्ठा अपने मार्ग में ही रखिये... होगी भगवत्प्राप्ति !
**************************
कल से आगे का प्रसंग -
आओ निवासाचार्य ! मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था... ।
गोवर्धन की तलहटी में विराजे हैं श्री निम्बार्क प्रभु...राधा कुण्ड से आये हैं उनके प्रिय शिष्य निवासाचार्य ।
श्रीनिम्बार्क प्रभु को साष्टांग प्रणाम करके..चरणों के पास ही बैठ गए थे ।
कुछ देर मौन ही रहे दोनों ।
फिर श्रीनिम्बार्क प्रभु ने पूछा... कैसी साधना चल रही है ?
आपकी कृपा है भगवन् ! बहुत संक्षिप्त सा उत्तर दिया ।
क्या बात है कुछ पूछना चाहते हो ?
हाँ भगवन् ! कुछ जिज्ञासायें हैं... निवासाचार्य ने हाथ जोड़े ।
पूछने की जब आज्ञा मिली... तब निवासाचार्य ने प्रश्न किये ।
अनुरागरूपा भक्ति में भी आपने "ध्यान" को इतना महत्व क्यों दिया है ?
तब श्री निम्बार्क प्रभु मुस्कुराये...बाहरी क्रिया का ज्यादा महत्व नही हैं...महत्व तो "चित्त" का है ना निवासाचार्य ।
ध्यान से ही अव्यक्त भी व्यक्त हो जाता है... और चित्त सहज में उसी में रम जाता है... धीरे धीरे चित्त की सत्ता ही समाप्त हो जाती है... और रह जाता है... वही श्रीकृष्ण ।
श्रीकृष्ण कौन है ? निवासाचार्य ने प्रश्न किया ।
हे निवासाचार्य ! श्री कृष्ण ब्रह्म हैं... परब्रह्म !
निम्बार्क प्रभु ने कहा ।
और ब्रह्म कौन हैं ?
"सत्यं ज्ञान अनन्तं ब्रह्म"...उपनिषद् यही कहते हैं... ।
वह सत्य है... वह ज्ञान है...वह आनन्द है... "अनन्त" से मतलब है हे निवासाचार्य ! उस ब्रह्म में आनन्द की अनन्तता का भाव समाहित है... वही परब्रह्म है ।
इसलिये उसे ही सत् चिद् और आनन्द कहा जाता है ।
निम्बार्क प्रभु ने इस बात को और स्पष्ट किया...
हे मेरे प्रिय शिष्य निवासाचार्य ! सत् से उसकी नित्य सत्ता का बोध होता है... वह सदैव है ।... पहले भी था... आज भी है... और कल भी रहेगा... । चिद् से मतलब है... वह ज्ञान स्वरूप है... ।
और आनन्द !...यही लीला रस !... यह सम्पूर्ण जगत ही उसके आनन्द का विलास है... देखो ! चारों ओर उसके आनन्द का विलास !...निम्बार्क प्रभु ने समझाया ।
वो ब्रह्म एक है ? या दो ? या ?
निवासाचार्य ने फिर जिज्ञासा की... ।
वो एक है... वो अद्वैत है... पर लीला के लिए वो दो होता है... दो ही क्यों...निम्बार्क प्रभु ने अपनी आँखें बन्द कर लीं थीं ।
वो दो बनता है... फिर तीन... फिर चार । नेत्रों को बन्द करके ही ज्ञान दे रहे हैं... अपने शिष्य निवासाचार्य को ।
श्रीकृष्ण... एक ब्रह्म... पर लीला विलास के लिए... उसी ब्रह्म की आल्हादिनी शक्ति श्रीराधा प्रकट होती हैं... पर लीला के विस्तार के लिए... अन्य सहयोगियों की भी जरूरत पड़ती है... तब सखियाँ... पर लीला विलास कहाँ हो... इसके लिए श्रीवृन्दावन धाम... ।
ये चारों ही नित्य हैं... अखण्ड हैं... ।
पर ये सब ब्रह्म ही है...ब्रह्म का ही विस्तार है ।
सम्पूर्ण जगत ही... कृष्ण रूपी ब्रह्म और उसकी आल्हादिनी श्रीराधा का ही रास मण्डल है... ।
निम्बार्क प्रभु उसी भाव जगत में पहुँच गए थे ।
पर इसका अनुभव साधारण मनुष्य नही कर पाता भगवन् !
निवासाचार्य ने फिर प्रश्न किया ।
भगवन् ! बताइये ना... मनुष्य कैसे इस जगत में रहते हुए... उस ब्रह्म की लीला का उसके अनंत काल से चल रहे "लीलारस" का आस्वादन कर सके ।
हे निवासाचार्य ! ये अनुभव साधना से नही प्राप्त होता...
ये तो कृपा से ही प्राप्त होता है । श्री निम्बार्क प्रभु ने कहा ।
पर वो "कृपा" कैसे प्राप्त होगी ?
...निवासाचार्य का प्रश्न श्रेष्ठ था ।
अनन्त काल से ये मनुष्य भटक रहा है... नाना प्रकार के सुख दुःख को भोग रहा है... नाना प्रकार के संस्कार चित्त में अंकित हो रहे हैं...
इस चित्त का मार्जन ( माँजना ) करना आवश्यक है... वो होगा हे निवासाचार्य !... सत्संग से... सन्तों के संग से... और निरन्तर संग... चाहे शास्त्र स्वाध्याय के रूप में वो सत्संग हो... या गुरु आज्ञा के रूप में... या भगवत्स्मरण !... तब जाकर चित्त रूपी पात्र स्वच्छ होगा... तब कृपा का अनुभव होगा ।
अपने आपको छोड़ दो "कृपा" के भरोसे हे निवासाचार्य !
निरन्तर उसकी कृपा बरस रही है... देखो !
श्री निम्बार्क प्रभु ने कहा ।
इतना कहकर शान्त हो गए थे श्री निम्बार्क प्रभु... ।
कुछ देर बाद फिर बोले... हे निवासाचार्य ! मैंने तुमको यहाँ इसलिये बुलाया है... कि इस द्वैताद्वैत सिद्धान्त के ऊपर तुम ग्रन्थ लिखो... भाष्य लिखो... लोगों को बताओ... कि ये अनुरागात्मिक भक्ति वैदिक सिद्धान्त से प्रतिपादित है... विद्वानों को बताओ... कि मात्र कोरी भावुकता नही है ये मार्ग... ये मार्ग वेदान्त सिद्ध... और वेद के द्वारा प्रतिपादित मार्ग है... ।
इस मार्ग में कोई काँटें नही हैं... ये राज मार्ग है... ये भक्ति और प्रेम का मार्ग है... दिव्य मार्ग है... ।
इस पर तुम लिखो... तुम विद्वान हो... तुम उद्भट विद्वान हो...
आज्ञा दी अपने प्रिय शिष्य निवासाचार्य को श्रीनिम्बार्क प्रभु ने ।
जो आज्ञा भगवन् ! निवासाचार्य ने सिर झुकाया ।
मैं अब जा रहा हूँ... नित्य निकुञ्ज !
ये बात मुस्कुराते हुए कही थी श्री निम्बार्क प्रभु ने...
बन्द हैं नेत्र... मुस्कुराहट बढ़ती जा रही है मुखारविन्द की... ।
नही भगवन् !... मानो वज्रपात हो गया था ।
आप अभी हम लोगों को छोड़ कर नही जा सकते ।
नेत्रों से अश्रु धार बहने लगे थे निवासाचार्य के ।
मुझे जाने दो... देखो ! वे सखियाँ मुझे बुला रही हैं... मेरी सुदेवी ! मेरी ललिता ! ये सब कह रही हैं... अब आ जाओ ! तुम्हारे बिना निकुञ्ज सूना सा लगता है...तुम जब से गयी हो रंगदेवी ! तब से श्रीजी ने नथ भी नही पहनी है...।
मेरे सर्वस्व युगलवर मुझे बुला रहे हैं... अब मैं...
इतना कहते हुए... श्री निम्बार्क प्रभु शान्त हो गए ।
ओह ! निवासाचार्य बहुत रोये...
पर ये क्या ?
तुम रोती हो नव्यवासा ! क्यों रो रही हो ?
चौंक गए निवासाचार्य ! इधर उधर देखा...
तो सामने खड़ी हैं... सुन्दर सी नीली साड़ी पहनी हुयीं... गौर वर्ण है जिनके देह का...
हाँ... मैं रंगदेवी ! उत्सव मनाओ ! पगली ! तुम्हारा निकुञ्ज में नाम होगा... नव्यवासा सखी ! तुम जल देने की सेवा करना ।
निकुञ्ज में प्रवेश मिलने पर भला कोई रोता है ?...उत्सव होना चाहिये... महामहोत्सव होना चाहिए... पगली नव्यवासा ।
श्री रंगदेवी जू ने इतना ही कहा... और अंतर्ध्यान हो गयीं ।
श्री निवासाचार्य जी ने... साष्टांग प्रणाम किया... ।
श्री निम्बार्क प्रभु के अनेक शिष्य चारों दिशाओं से आये... और सबने स्तुति की... जय जयकार किया ।
महामहोत्सव मनाया गया ।
!! इति श्रीनिम्बार्काचार्य चरित्र !!
( शाश्वत लिखता है... मुझे प्यार हो गया श्रीनिम्बार्क प्रभु से ।
गौरांगी भी कह रही थी..."श्रीरंगदेवी सखी"...कितना अच्छा नाम है ना... हरि जी ! निकुंज में मेरा नाम क्या होगा ?... मैंने कहा "हरि प्रिया"...ये सुनते ही... मुझे गले लगा लिया था उस पगली ने )
हे निम्बार्क दयानिधे गुण निधे, हे भक्त चिन्तामणें
हे आचार्य शिरोमणें मुनिगणै, रामृग्य पादाम्बुज ।
हे सृष्टि स्थिति पालक प्रभवन, हे नाथ मायाधिप
हे गोवर्धन कन्दरालय विभो, मां पाहि सर्वेश्वर ।।
Harisharan
[ हर क्षण जपते रहिये ]
Join Telegram
1 Comments
Radhey Radhey
ReplyDeleteYou Can Ask Here About Sampraday