!! श्रीनिम्बार्काचार्य जी का चरित्र !! भाग 10


!! श्रीनिम्बार्काचार्य जी का चरित्र !! 


उपास्यरूपं तदुपासकस्य च, कृपा फलं भक्तिरसस्ततः परम् ।

( निम्बार्क दस श्लोकी )

भाग-10

!! श्रीनिम्बार्काचार्य जी का चरित्र !! भाग 10


कल से आगे का प्रसंग -


आहा ! कितना दिव्य है यह श्रीधाम वृन्दावन ! 


और इस श्रीवृन्दावन धाम में भी श्री गिरिराज गोवर्धन !...


जिसकी तलहटी में विराजे हैं, सम्पूर्ण भारत भ्रमण करके श्री निम्बार्क प्रभु । निम्ब ग्राम है... तलहटी के पास में ही है ।


मोर नाच रहे हैं... कोयल और तोता बोल रहे हैं... 


निम्बार्क प्रभु को फल चाहिये... तो ये कपि, वृक्षों से तोड़कर तुरन्त फल ला देते हैं... और सामने रख देते हैं ।


झरना बह रहा है... गोवर्धन पर्वत से... उस झरने में फलों को धोते हैं... जल भी ले लेते हैं... और श्री सर्वेश्वर भगवान के आगे रख देते हैं... फिर ध्यान ! 


ध्यान में कब तक बैठे रहेंगे श्रीनिम्बार्क प्रभु... कुछ पता नही ।


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देखो ! तलहटी से प्रकाश झर रहा है... मानो बह रहा है ।


अजी ! रात होने वाली है...फिर भी ऐसा लग रहा है कि उस तरफ सूर्य भगवान हैं... चलो चलकर देखते हैं । मन में विचार करके उस तरफ चल दिए थे ।


ये यति थे... सन्यासी ।


 बृज भूमि में भ्रमण कर रहे थे... गिरिराज जी में देखा अद्भुत प्रकाश... तो उस तरफ ही चल दिए ।


जितना पास में जा रहे थे ये सन्यासी... प्रकाश में से आकार दीखने लगा था... ।


श्रीनिम्बार्क प्रभु ध्यान में बैठे हैं... ।


दिव्य प्रकाश ! वो प्रकाश इनका था ? सन्यासी तो चकित हो गए ।


ऊर्जा का प्रवाह चल पड़ा था...आध्यात्मिक ऊर्जा ने खींच लिया था ।


ये सन्यासी न चाहने के बाद भी वहाँ जाकर बैठ गए थे...बैठे ही नही... उन्होंने तो हृदय से निहारना शुरू कर दिया था निम्बार्क प्रभु को ।


कितने सुन्दर हैं ये ! आहा ! 


पर मैं तो सन्यासी हूँ... मेरा मन इनकी तरफ क्यों खिंच रहा है ।


ये तो सगुन साकार के उपासक लगते हैं... और मैं निर्गुण निराकार का उपासक !


ये सन्यासी कुछ समझ ही नही पा रहे थे ।


बस अपलक नेत्रों से देखते ही रहे... मानो त्राटक लग गयी हो ।


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वो बड़े बड़े कमल नयन खुले श्रीनिम्बार्क प्रभु के... ।


हृदय को भेदने वाली दृष्टि से उन सन्यासी को देखा श्रीनिम्बार्क प्रभु ने... सन्यासी आँखें कहाँ मिला पाये थे ।


हे यति ! आप इन फलों को स्वीकार करें !


जो फल अपने श्री सर्वेश्वर भगवान को भोग लगाया था... उसे उन सन्यासी के सामने रख दिया ।


कितनी विनम्रता से बोले थे... आप ये फल स्वीकार करें ।


हा हा हा हा...आप सब कुछ जानते हैं... फिर भी ऐसी बातें क्यों कर रहे हैं ! हँसी उड़ाई थी उन सन्यासी ने श्रीनिम्बार्क प्रभु की ।


मुस्कुराते हुए निम्बार्क प्रभु ने कहा... मैंने कुछ अनुचित तो कहा नही है... आप मेरे अतिथि हैं... और मैं आपको प्रसाद लेने का आग्रह ही तो कर रहा हूँ ।


पर सन्यासी सूर्यास्त होने पर कुछ खाता कहाँ है ?


"पर सूर्य का अस्त और उदय तो हम सखियों की इच्छा पर निर्भर है"


ये बात कुछ रहस्यमयी सी बोल दी थी निम्बार्क प्रभु ने ।


क्या ? 


 चौंक कर पूछा सन्यासी ने...सूर्य का अस्त होना और उदय होना सखियों की इच्छा पर निर्भर है ? 


हाँ... जहाँ आप बैठे हैं... ये भूमि प्राकृत कहाँ है ? 


ये तो दिव्य श्री धाम वृन्दावन है... श्रीनिम्बार्क प्रभु ने कहा ।


पर मुझे तो सब प्राकृत ही दिखाई दे रहा है... सन्यासी ने उत्तर दिया ।


अच्छा ! तो अभी तुमने वो दृष्टि पाई नही है... 


लो ! देखो ! 


ये कहते ही... सब कुछ बदल गया... 


हजारों सूर्य एकाएक उदित हो गए हों...इतना प्रकाश छा गया था ।


पर ये प्रकाश शीतल था... 


यहाँ की भूमि सुवर्ण के समान थी... यहाँ हवा भी चल रही थी... तो धूल, कपूर और मोती का चूर्ण था ।


वृक्ष लताएँ... सब प्रकाशित हो रही थीं... 


यमुना नदी कंगनाकार होकर श्री धाम की परिक्रमा करते हुए बह रही थीं... ।


यमुना की रेत चाँदी की तरह चमचमा रही थी... 


ये देखकर सन्यासी तो देह सुध भूलने लगे ।


ये सब क्या है ? 


श्रीनिम्बार्क प्रभु ने उत्तर दिया... दिव्य वृन्दावन ।


पर सन्यासी के देखते ही देखते... श्रीनिम्बार्क प्रभु एक दिव्य सखी के रूप में परिणत हो गए... और तभी अत्यंत मधुर ध्वनि सुनाई दी... नूपुरों की... उस सन्यासी को... ।


सामने के कुञ्जों से... एकाएक दिव्यातिदिव्य सात सखियाँ निकल कर आयीं... उन सात सखियों ने... इस सखी को अपनी ओर प्यार से खींचा... और मधुर आवाज में कहा... "युगलवर को कुछ भोग नही लगाना है क्या ? "


हाँ... लगाना है... चलो... अब सब चल दीं ।


सन्यासी देखते ही रह गए... ये क्या ! 


वो उठे... और दौड़े उन सखियों के पीछे ।


ओह ! गर्मी है... है ना... ललिता सखी ! हमारे युगलवर को गर्मी लग रही होगी... है ना ?


हाँ... गर्मी है... उस सखी की बात का समर्थन किया दूसरी ने ।


तभी अत्यंत शीतल हवा एकाएक चलने लगी... सुगन्धित हवा ।


सन्यासी चकित हो गए थे... इनकी इच्छा से यहाँ प्रकृति चलती है ?


इच्छा तो युगलवर की है... हम तो उनकी इच्छा से ही प्रेरित होती हैं... ये बात सन्यासी के कान में धीरे से कह गयी थी वो सखी... जो श्रीनिम्बार्क प्रभु बने थे ।


श्री रंगदेवी नाम था इनका ।


ओह ! ये क्या ! सन्यासी के आश्चर्य और आनन्द का आज ठिकाना नही था... तलहटी से अनन्त सखियाँ निकल निकल कर आरही थीं... इनकी नुपुर की ध्वनि से गिरिराज पर्वत गुंजित हो उठा था ।


वो सब इतनी सुन्दर थीं कि... अप्सरायें क्या ! उमा शारदा भी इनकी सुन्दरता के आगे... कम ही पड़तीं ।


गोवर्धन पर्वत के उस पास से अब प्रकाश का आना फिर से शुरू हो गया था... उस सन्यासी की तो बुद्धि काम ही नही कर रही थी ।


बुद्धि को छोड़ दो सन्यासी ! 


फिर श्री रंगदेवी सखी ने आकर धीरे से कान में कह दिया था... और ये भी कहा था..."ये प्रेम निकुञ्ज है...इसमें बुद्धि कहाँ लगा रहे हो"... इतना कहकर खिलखिलाते हुए वो फिर सखियों की अग्रवर्ति बनकर चल दी थीं ।


दिव्य प्रकाश है... सिहांसन है... उस सिंहासन में... युगलवर विराजे हैं... ।


उस रूप को देखा सन्यासी ने... चारों ओर से जयजयकार शुरू हो गया था ।


भोग लगा रही थीं सखियाँ...मुस्कुराते हुए पा रहे थे... दोनों युगलवर ।


सखियाँ मुग्ध होकर गा रहीं थीं...किसी ने वीणा ले ली थी...किसी ने पखावज... किसी ने सारंगी... ।


सिर चकरा रहा था सन्यासी का... इस असीम आनन्द को शायद इनका शरीर अब ज्यादा सहन न कर पायेगा ।


मूर्छित हो गए थे वो सन्यासी ।


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हे सन्यासी ! आप फल का प्रसाद ले लो ! 


मूर्छित सन्यासी को यमुना जल का छींटा दिया श्रीनिम्बार्क प्रभु ने... और फल का प्रसाद सामने रख दिया था ।


साष्टांग लेट गए थे वो सन्यासी... प्रसाद ग्रहण किया... अब कोई तर्क नही था... न कोई कुतर्क ।


प्रसाद दिव्य था... इस प्रसाद को ग्रहण करते ही... फिर उसी निकुञ्ज में जाने की... और उन्हीं सखियों के साथ सेवा में लगने की इच्छा ने जन्म लिया ।


कैसे सम्भव होगा भगवन् ! उस निकुञ्ज के... और उस निकुञ्ज के नायक युगलवर के दर्शन ! 


मैं अब तड़फ़ रहा हूँ...मुझे वहीं रूप फिर देखना है । उस सन्यासी की तड़फ़ अब उच्चतम अवस्था में पहुँच चुकी थी । 


श्रीनिम्बार्क प्रभु ने गले में तुलसी की कण्ठी बाँध दी...और कान में मन्त्र फूँक दिया ।


फिर श्री राधिकाष्टक स्तोत्र प्रदान किया... ।


आज के बाद तुम्हारा नाम होगा... निवासाचार्य ।


हे निवासाचार्य ! तुम जाओ यहीं पास में ही राधा कुण्ड है... वहीं रहो... और नित्य स्नान करते हुए...श्री राधाष्टक का पाठ करो ।


तुम श्री राधामाधव की नित्य सन्निधि प्राप्त करोगे ।


तुम दर्शन पाओगे... निकुञ्ज का रस भी ।


अब जाओ... श्री राधा कुण्ड... ।


इतना कहकर निवासाचार्य को भेज दिया निम्बार्क प्रभु ने... और स्वयं अब रंगदेवी सखी के रूप में फिर निकुंज में प्रवेश कर गए ।


शेष प्रसंग कल... 


Harisharan



[ हर क्षण जपते रहिये ]

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