google.com, pub-8916578151656686, DIRECT, f08c47fec0942fa0 !! श्रीनिम्बार्काचार्य जी का चरित्र !! भाग 09

!! श्रीनिम्बार्काचार्य जी का चरित्र !! भाग 09

 आज के विचार


!! श्रीनिम्बार्काचार्य जी का चरित्र !! 


जयति कुञ्जविभूषण राधिका प्रियतमस्य सदा सुख साधिका..

( श्रीराधिकाष्टक )

भाग-9

!! श्रीनिम्बार्काचार्य जी का चरित्र !!


( साधकों ! शाश्वत लिखता है… भक्तों के चरित्र में... "श्रीनिम्बार्काचार्य जी" के बारे में... ।


श्री निम्बार्काचार्य जी भक्ति के प्रथम "मधुर रस" उपासक हैं... 


और इस "मधुर रस" की उपासना पद्धति, विश्व को इन्हीं ने दी है ।


"मधुर रस" के बारे में... शाश्वत लिखता है -


"मधुर रस या इसे "श्रृंगार रस" भी कहा जाता है... ये प्रेम की पराकाष्ठा है... और इसे स्वार्थ और वासना से भरे हुए चित्त अगर नही समझ पाते... तो ये स्वाभाविक ही है ।


इसलिये इस निम्बार्क सम्प्रदाय में... हमारा चित्त उस मधुर रस को ले सके... इसके लिए कुछ साधनाएं बताई गयीं हैं... ।


शाश्वत लिखता है... गोपालमन्त्र का जाप... शरणागति मन्त्र का जाप... गोपाल सहस्त्रनाम का पाठ ।


और युगल मन्त्र का निरन्तर जाप ।


निम्बार्क सम्प्रदाय में...6 महिने, गोपाल मन्त्र का अनुष्ठान करना...ये आचार्यों का आदेश है ।


इसके बाद चित्त उस "मधुर रस" के लिए तैयार हो जाता है ।


चित्त की कलुषता समाप्त हो जाती है ।


इस निम्बार्क सम्प्रदाय की एक और विशेषता है... इस अनुष्ठान के बाद... "महावाणी" नामक एक ग्रन्थ है... उसको पढ़ने का अधिकार प्राप्त होता है... महावाणी में अष्टयाम सेवा... और मधुर रस की दिव्यातिदिव्य लीलाएं हैं...।


शाश्वत आश्चर्य करता है... बृजभाषा का ये ग्रन्थ है... महावाणी ।


इसमें सुन्दर सुन्दर पद हैं...पर माइक में गाने की आज्ञा अभी तक नही है... और इस महावाणी को श्रीधाम वृन्दावन से बाहर ले जाकर पाठ करने का अधिकार भी नही है... ।


हाँ कोई उस स्थिति का हो...अधिकारी हो... तो अलग बात है ।


जैसे गोरखपुर में बैठे श्रीराधाबाबा जी इस महावाणी का पाठ करते थे ।


श्री हनुमान प्रसाद पोद्धार जी तो स्वयं श्री निम्बार्क सम्प्रदाय के ही थे... राजस्थान में "चिढ़ावा" नामक एक स्थान है... वहाँ के निम्बार्की सिद्ध सन्त श्री राधिका दास जी से उन्होंने कण्ठी ली थी ।


पोद्धार जी भी महावाणी का पाठ करते थे ।


शाश्वत लिखता है... मैंने उस महावाणी को पढ़ा है... दिव्य रस है उसमें...श्री निम्बार्काचार्य जी से 32 वीं परम्परा में एक सिद्ध महापुरुष हुए... श्री हरिव्यास देवाचार्य जी...उन्होंने इसे लिखा है 


अस्तु ।


शाश्वत आगे लिखता है... 


"इस मधुर रस में अपना सुख, अपनी तृप्ति, अपना सम्मान... कुछ है ही नही । यहाँ तो सब कुछ सौंप देना है... ।


श्रृंगार इसलिये कि वे देखकर प्रसन्न हों, भोजन इसलिये कि... ये देह उनका दिया हुआ है... हमें इसे ठीक रखना है ।


उनका सुख, उनका आनन्द, उनका आल्हाद... अपनेपन का इतना उत्सर्ग कि... अपनी सत्ता ही समाप्त... बस तू ।


इस मधुर रस में हम इतने डूब गए... कि एक ही हो गए ।


उनका आभास अपने में ही होने लगा... ओह !


पर इसके बाद कुछ लिखा नही जा सकता... क्यों कि वो सिर्फ अनुभव का विषय है... शब्दातीत है ।


महाभाव की साक्षात् मूर्ति श्री राधारानी इस निम्बार्क सम्प्रदाय की प्राण हैं... उनका स्मरण करना... ।


लिखा तो और भी बहुत कुछ है शाश्वत ने... पर छोड़िये ! आप बोर हो जायेंगे...अब आगे का चरित्र ही पढ़िए...कल से आगे का -


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आगे का चरित्र -


श्री निम्बार्क प्रभु जब द्वारिका से बद्रीनाथ जा रहे थे... तब नैमिषारण्य में भी गए... 


शौनक इत्यादि अट्ठासी हजार ऋषियों ने...श्री निम्बार्क प्रभु को सुदर्शन चक्रावतार के रूप में... अपने सामने पाकर गदगद् हो गए थे ।


हे सुदर्शन चक्र के अवतार श्री निम्बार्क ! समस्त ऋषियों की एक प्रार्थना है... अगर आप कहें तो मैं उस प्रार्थना को निवेदित करना चाहता हूँ... ऋषि शौनक जी ने निम्बार्क प्रभु से कहा था ।


मुस्कुराते हुए... निम्बार्क प्रभु ने कहा... हाँ अवश्य कहिये ! 


हे निम्बार्क ! ये सब ऋषि आपके सुदर्शन चक्र का रूप देखना चाहते हैं... अगर आप हमें दर्शन कराएं तो ।


शौनक जी ने प्रार्थना की... ।


तभी देखते ही देखते... चक्र तीर्थ नैमिष में... श्री निम्बार्क प्रभु सुदर्शन चक्र के रूप में प्रकट हो गए ।


तेज़ इतना था... प्रकाश इतना था... कि समस्त ऋषि उस रूप को देख भी नही पाये... शौनक जी उस दिव्य रूप का दर्शन करके आनन्दित हो गए थे... और उन्होंने बड़ी ही श्रद्धा से स्तुति की थी ।


वहाँ गौरमुख नामके ऋषि थे... उनको वैष्णवी दीक्षा देकर श्री निम्बार्क प्रभु बद्रीनाथ के लिए आगे चल दिए ।


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बद्रीनाथ पहुँच कर...नर नारायण भगवान ने प्रत्यक्ष होकर दर्शन दिये ।


अलकनन्दा में नित्य स्नान करते थे श्री निम्बार्क प्रभु ।


एक दिन... रात्रि की वेला थी...ध्यान में लीन थे कि तभी... 


सामने श्रीकृष्ण भगवान प्रकट हो गए... ऐसा निम्बार्क प्रभु को लगा ।


उन्होंने तुरन्त उठकर...प्रणाम किया... और कहा... हे भगवन् ! मैं आपके दर्शन करके धन्य हो गया ।


तब आवाज आई... नही ! हे निम्बार्क ! मैं श्रीकृष्ण नही हूँ... मैं तो उनका सखा उद्धव हूँ... 


उद्धव जी ! श्री निम्बार्क प्रभु आनन्दित हो उठे थे ।


हाँ... हे निम्बार्क ! मैं तो यहाँ इसलिये हूँ... कि भगवान श्रीकृष्ण ने मुझे आज्ञा दी थी... पर दूसरे रूप से मैं... इतना कहकर चुप हो गए थे श्री उद्धव जी ।


कहाँ हैं आप दूसरे रूप में ?... निम्बार्क प्रभु ने पूछा ।


मैं दूसरे रूप में... बृज भूमि में रहता हूँ... श्री गिरिराज जी की तलहटी में... ।


आहा ! जैसे ही श्री बृज और गिरिराज जी का नाम लिया उद्धव जी ने... श्री निम्बार्क प्रभु को रोमांच हो गया था... 


फिर कुछ देर में उद्धव जी ने कहा... आप कहाँ भटक रहे हैं... हे निम्बार्क ! आप तो उसी बृज में जाइए... और वहीँ गिरिराज जी में ही वास कीजिये...।


उद्धव जी रुक रुक कर बोल रहे थे... हे निम्बार्क ! आप ऐसा मत सोचना कि... मैं उद्धव अपने मन से ये सब कह रहा हूँ... नही... मुझे श्रीकृष्ण ने ही ये आज्ञा दी थी... मैं आपको अब वहीं गिरिराज जी में ही वास करने की बात कहूँ... ।


सच कह रहा हूँ... मेरा मन तो श्री वृन्दावन के सिवाय कहीं नही लगता... हे निम्बार्क ! श्री वृन्दावन का हृदय हैं गोवर्धन ।


श्री वृन्दावन क्षेत्र के अंदर गिरिराज जी, यमुना जी ..ये सब आते हैं ।


श्री निम्बार्क प्रभु ने उद्धव जी का हाथ पकड़ा... और बड़े प्रेम से उन्हें सामने की एक शिला में बैठाया... स्वयं नीचे बैठे ।


परमधाम जब जा रहे थे... श्रीकृष्ण चन्द्र जू... तब आपको क्या कहा था ? 


 इस प्रसंग को सुनना चाहते थे और वो भी उद्धव जी के ही मुखारविन्द से ।


श्री निम्बार्क प्रभु के इस प्रश्न पर उद्धव जी कुछ क्षण के लिए रुक गए ।


फिर बोले... ज्ञान की बातें बहुत कहीं... वो आप जानते ही हैं ।


पर अंतिम में मुझे बोले थे... तुम बद्रीनाथ जाओ... उद्धव ! तुम बद्रीनाथ जाओ ।


मैं रो पड़ा था... आज्ञा थी... इसलिये मैं चरणों में वन्दन करके जैसे ही जाने लगा... तब हे निम्बार्क ! मेरा हाथ पकड़ा श्रीकृष्ण ने... और मुझ से कहा... सुनो ! बद्रीनाथ जाते समय... मेरे वृन्दावन भी होते जाना ! इतना कहते हुए... उनके नेत्रों से अश्रु गिरने लगे थे ।


उद्धव ! मुझे पता है... मेरी श्रीराधा... मेरे ग्वाल सखा... गोपियाँ... सब मेरे इस धरा धाम को छोड़ते ही... मेरे साथ ही वो सब भी नित्य निकुञ्ज में चली आयेंगीं ।


पर उद्धव ! वहाँ की माटी को अपने माथे से लगाना... उद्धव ! सब कहते हैं तू मेरा रूप है... मेरे जैसा लगता है... इसलिये मैं तुझे वहाँ भेज रहा हूँ... जाना ! 


हे निम्बार्क ! उस समय मैं श्रीकृष्ण के चरणों में अपने मस्तक को रख कर बहुत रोया था... मेरे साथ श्रीकृष्ण भी रोये थे ।


इतना कहते हुए... अपने आँसू पोंछे उद्धव जी ने... ये सब उनकी लीला है... वो लीला धारी हैं... उनके लिए क्या दुःख क्या सुख ! क्या संयोग और क्या वियोग ! वो भूमानन्द हैं... ।


तुम जाओ ! निम्बार्क ! श्री धाम वृन्दावन जाओ... वहीं श्री गिरिराज जी की तलहटी में... जहाँ तुम्हारे माता पिता ऋषि अरुण और माँ जयंती इन्तजार कर रहे हैं... जाओ वहाँ ।


इतना कहकर उद्धव जी अंतर्ध्यान हो गए... 


निम्बार्क प्रभु ने प्रणाम किया... और प्रातः काल में ही स्नानादि करके... नर नारायण भगवान के दर्शन करके... श्री धाम वृन्दावन के लिए निकल गए थे ।


शेष चर्चा कल... 


Harisharan



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