!! श्रीनिम्बार्काचार्य जी का चरित्र !!
जयति सततमाद्यम् राधिका कृष्ण युग्मम्...
( श्री औदुम्बराचार्य )
भाग-8
( साधकों ! भला हो गौरांगी का... कि शाश्वत से उसने मेरी कल बात करा दी... वो मोबाइल नही रखता... उससे सम्पर्क का कोई साधन नही है... मैंने दो दिन पहले... जब मेरी गौरांगी से बातें हुयी थीं...तब मैंने उससे कहा था... कहीं मिले शाश्वत तो उससे मेरी बात करा देना... ।
उसे मिल गया... श्री राधाबल्लभ जी में ।
गौरांगी ने बताया मुझे... फोन लगाकर उसके हाथ में दे दिया था ।
कौन है ? पूछा था शाश्वत ने ।... हरि जी ! बात करो ।
साधकों ! उसकी स्थिति बहुत ऊँची है... मैंने उससे पहला प्रश्न किया था... तुम कहाँ थे ?
बरसाने की पहाड़ियों में था... उसने उत्तर दिया ।
आप कैसे हो ? मुझ से पूछा उसने ।
मैं ठीक हूँ... और सुनो यार ! कुछ पूछना था मुझे ।
शाश्वत को मोबाइल में ज्यादा बातें करना पसन्द नही है ।
हाँ पूछो ।
शाश्वत ! ये श्री निम्बार्काचार्य चरित्र जो तुमने लिखा है...ये इतिहास है...या तुम्हारी कल्पना ? क्यों कि शाश्वत ! कई लोग मुझ से कह रहे हैं... ऐसा नही है...ऐसा नही है... ।
शाश्वत दो टूक बोला... उनसे कह दो... न पढ़ें ।
ये क्या बात हुयी... मैंने शाश्वत से कहा ।
और क्या ! देखो ! हमारे सनातन धर्म ने इतिहास को लिखना नही जाना है... हमारे यहाँ इतिहास लिखे भी नही गए हैं... हमारे यहाँ काव्य लिखे गए हैं... हमारे यहाँ शास्त्र लिखे गए हैं ..हमारे यहाँ पुराण लिखे गए हैं... शाश्वत कितना सटीक बोलता है... बताओ ! ये कुछेक सौ वर्ष पहले के पाश्चात्य से प्रभावित हुये लोगों ने इतिहास लिखना शुरू किया है... और इनके कारण ही हमारे इतिहास की दुर्दशा हुयी है ।
हमारी सोच है... "सम्भवामि युगे युगे" वो हर युग में आएगा... आता है... जब जब आवश्यकता पड़ती है वो आता रहेगा ।
पर उनके पाश्चात्य में ऐसा नही है...उनका क्राइष्ट एक बार आया...बस... इसलिये उनको इतिहास एग्जेक्ट चाहिए।... और उनके यहाँ यही एक हुये... इसलिये इतिहास लिखना उनके यहाँ शुरू हुआ ।
हमारे यहाँ... हमारी सनातन फिलॉसफी में... वो अस्तित्व नाना रूपों में आता रहता है... कभी राम, कभी कृष्ण, कभी बुद्ध, कभी शंकराचार्य... शाश्वत जोर देकर कहता है... श्री कृष्ण ने गीता में कहा है... ये जितने आचार्य हैं... ये सब मेरा ही रूप है ।
तो बताओ... कभी वो अस्तित्व शंकराचार्य के रूप में आता है...कभी निम्बार्काचार्य के रूप में... कभी रामानुजाचार्य के रूप में... कभी भक्तों के रूप में... तो हरि जी ! बताइये... हम क्यों लिखे इतिहास ?... हम तो काव्य लिखेंगे... उनके सिद्धान्त लिखेंगे... वो कितने सम्वत् में पैदा हुए... और कितने सम्वत् में परमधाम गए... इस पर हम लोग ज्यादा विचार नही करते... और कोई आध्यात्मिक लाभ भी नही है विशेष इससे... बताओ है क्या ?
मैंने कहा... शाश्वत ! ठीक कह रहे हो तुम !
लो फोन... उसने गौरांगी को फोन पकड़ा दिया ।
फोन कट गया...
मैं सोच रहा था... इतनी गहरी दृष्टि इसको कहाँ से मिली ।
सही कहा शाश्वत ने... हमारे यहाँ इतिहास नही लिखे गए...शास्त्र लिखे गए... पुराण लिखे गए... काव्य लिखे गए... उपनिषद् लिखे गए... हाँ... ये मानव जाति को ज्यादा जरूरी थे ।
सम्वत् को याद रखने की या उसे लिखने की आदत हम लोगों में नही थी... और सही भी है... ।
श्रीनिम्बार्काचार्य जी के बारे में कई भ्रांतियाँ फैलाई गयीं आधुनिक इतिहासकारों ने... किसी ने लिखा ये रामानुजाचार्य के बाद हुए... किसी ने लिखा ये पाँच हजार वर्ष पहले हुए ।
जो भी हो... शाश्वत इन झंझटों में नही पड़ता...वो सार सार लेता है ।
हम भी सारग्राही बनें...साधकों ! आप लोग समझ रहे हैं ना ?
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आगे का प्रसंग...
श्रीनिम्बार्क प्रभु नारायण सरोवर से होते हुए द्वारिका पहुँचे थे ।
उनके साथ कई शिष्यों की मण्डली भी अब चलने लगी थी ।
"गोपी तालाब" के पास में ही उन्होंने अपना आसन लगाया था ।
ध्यान में बैठ गए थे श्री निम्बार्क प्रभु ।
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श्रीराधा हैं ये !
...हमारे प्राणेश्वर की प्रेयसि ।
इसी गोपी तालाब के पास ही कुटिया बना दी थी श्रीकृष्ण ने... और श्रीराधा अपनी सखियों के साथ कुछ दिन के लिए यहीं रह रही थीं ।
अपने साथ रुक्मणी, अन्य रानियों को भी ले आयीं थीं... रुक्मणी की भेंट तो कुरुक्षेत्र में हो ही गयी थी श्रीराधा से... . पर ये सब रानियाँ नही मिलीं थीं...आज जब श्रीराधा रानी द्वारिका में आयीं हैं... ये सुना, तो सुबह से ही रुक्मणी को जिद्द कर बैठीं... हमें भी मिलाओ न ।
रुक्मणी ने श्रीकृष्ण से कहा था... आप चलिये !
नहीं... तुम लोग जाओ... मिल के आजाओ ।
इतना कहकर श्रीकृष्ण फिर अपना राजकाज करने लगे थे ।
ये हैं श्री राधा...
...एक अत्यंत सुन्दरी खड़ी हैं कुटीर के पास... तब सत्यभामा ने जाम्बवती से कहा ।
नही ये श्रीराधा नही हैं... ये ललिता सखी हैं... श्रीराधा की प्रिय सखी । रुक्मणी ने सत्यभामा को बताया ।
ओह ! इतनी सुन्दर !...हम तो इनके पैर की धूल भी नही हैं ।
रुक्मणी सत्यभामा के इस बात पर कुछ नही बोलीं थीं ।
चलो ! मैं मिलाती हूँ... तुम लोगों को श्रीराधा से ।
ये कहते हुए रुक्मणी उस अत्यंत सुन्दरी ललिता सखी के पास गयीं ।
श्रीराधा से मिलनें आयीं हैं ये सब...रुक्मणी ने ललिता सखी से कहा ।
अभी भावावस्था में हैं श्रीजी...हे कृष्ण पत्नियों ! कुछ क्षण के लिए रुक जाओ ।
ललिता सखी ने रुक्मणी और अन्य रानियों से कहा ।
नही... हमें अभी मिलने दीजिये ।
हम बहुत आस लेकर आई हैं... हमसे प्रतीक्षा नही होगी... ।
ठीक है चलिये...कुछ सोच कर रानियों को लेकर चलीं...ललिता सखी ।
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आइये !
ललिता सखी कृष्ण पत्नियों को लेकर श्रीराधा जी के पास आई हैं ।
अरे ! क्या हुआ ? बोलो ना ! प्यारे ! क्यों नही बोल रहे ।
श्रीराधा, चिन्तन में ऐसे ही कुछ बोलने लगी थीं ।
सत्यभामा और अन्य रानियाँ तो श्रीराधा जी की ओर देख भी नही सकीं... उनका तेज़ ही इतना था ।
ललिता ! देखो ना... प्यारे ! चुप हो गए हैं... बोल ही नही रहे ।
ये श्रीकृष्ण पत्नियां आई हैं... ललिता सखी ने श्रीराधा से कहा ।
ओह ! तभी तुम नही बोल रहे हो !
श्रीराधा ने मुस्कुराते हुए कहा ।
आप को श्रीकृष्ण मिले नही... इस बात का कष्ट तो होता ही होगा न ?
सत्यभामा ने ये प्रश्न किया था श्रीराधा से ।
श्रीराधा रानी हँसी... खूब हँसी...
उनकी हँसी इतनी सुन्दर थी कि... द्वारिका की प्रकृति आनन्दित हो उठी थी... ।
मुझे श्रीकृष्ण नही मिले ?
अरे ! मुझे श्रीकृष्ण के अलावा और कुछ मिला ही नही है ।
श्रीराधा ये कहकर आनन्दित हो रही थीं ।
फिर बोलीं... वो सदैव मेरे साथ हैं... अभी मेरे ही साथ हैं... हम बातें कर रहे थे ।
कहाँ हैं... बताइये श्रीराधे ! कहाँ हैं श्रीकृष्ण ?
रुक्मणी मौन बैठी रहीं... क्यों कि श्रीराधा की महिमा को ये कुरुक्षेत्र में देख चुकीं थीं ।
पर सत्यभामा ने पूछा था... कहाँ हैं श्रीकृष्ण ?
तब श्रीराधा रानी आँखें बन्दकर बैठ गयीं...
देखते ही देखते... एक दिव्य प्रकाश छा गया उस कुटिर में...
किसी को कुछ नही दिखाई दे रहा था...
तभी वो प्रकाश छंटा... और एक दिव्य सिंहासन दिखाई दिया...
उस सिंहासन में... श्रीराधा रानी वाम भाग में हैं...
श्रीकृष्ण चन्द्र जू दाहिनी ओर विराजमान हैं...
हजारों सखियाँ सेवा में जुटी हुयी हैं... कोई चँवर ढुरा रही है... कोई जल ला रही है... कोई माला पहना रही है ।
बाँसुरी धारण किये हुए हैं श्रीकृष्ण... और श्रीराधा के दाहिने हाथों में कमल है...बायां हाथ श्रीकृष्ण के कन्धे में है ।
जय हो... जय हो... जय हो... करते हुए रुक्मणी इत्यादि रानियाँ प्रणाम करने लगीं थीं... युगल वर को ।
तभी वह दिव्य झाँकी अंतर्ध्यान हो गयी...और श्रीराधा रानी की मधुर आवाज गूँजी...हम दोनों एक ही हैं...हम दोनों अलग नही हैं ।
सत्यभामा बोलना चाह रहीं थीं... पर क्या बोलें ।
श्रीकृष्ण पत्नियां समझ गयीं थीं कि...ये दोनों एक ही हैं...दो लगते हैं ।
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श्री निम्बार्क प्रभु... ध्यान में झाँकी का दर्शन करते हैं...
उस लीला का दर्शन करते हैं... ।
फिर गोपी तालाब में स्नान करते हुए... वहाँ के रज की महिमा का गान करते हैं... गोपी चन्दन का माहात्म्य अपने शिष्यों को सुनाते हैं... गोपियां इसी तालाब में नहायी थीं... ।
चक्र और शंख के छाप की परम्परा भी द्वारिका में श्री निम्बार्काचार्य जी के द्वारा ही चलाई गयी है...
पर श्री निम्बार्काचार्य जी ने तप्त छाप की अपेक्षा शीतल छाप गोपी चन्दन के द्वारा ही शिष्यों को लगाने की प्रेरणा देकर...
द्वारिका की भूमि को प्रणाम करते हुए, बद्रीनाथधाम के लिए चल दिए थे ।
शेष चर्चा कल...
Harisharan
[ हर क्षण जपते रहिये ]
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